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११. हे भगवंत! नारकी नरके, पोतेइज उपजै छै ।
के पोते नहिं उपजै, पर नां वश थी नरक पड़े छै? १२. जिन भाखै पोत इज नारकि, नरक विषे उपजै छ ।
पिण पर नां वश थकी नारकी, नरके नांहि पड़े छै ।। १३. किण अर्थे भगवंत ! इम भाख्यो, जिन कहै सुण गंगेया !
निज कृत कर्म उदय करि जंतु, स्वयं नरक उपजेया ।।
वा०-जिम कोई कहै छ.--- ए जीवात्मा नै सुख-दुख उपजै ते ईश्वर नों प्रेरयो स्वर्ग में जाय छै तथा नरक में जाय छ। पिण पोता ने वश जातो नथी, परवश जाय छ। तेहनो मत खंडन कीधो, एतलै ईश्वर सुख-दुख नों कर्ता नथी। १४. कर्मगुरू ते महत कर्म करि, कर्मभार करि जाणी।
कर्मगुरूसंभारपणे करि, अति प्रकर्ष पिछाणी ।। १५. ए तीनइं पुन्य कर्म नीं, अपेक्षाय पिण वदियै ।
तिण कारण आगल इम अखिय, अशुभ कर्म नैं उदिये ।
१६. उदय प्रदेश थकी पिण ह्र ते, तिण कारण इम कहिये ।
अशुभ कर्म नां विपाक करिक, बंध्यो अनुभव लहियै ।।
१७. ते तो मंद थकी पिण ह छै, तिण कारण इम कहै छै ।
अशुभ कर्म फल विपाक करिक, स्वयं नरक उपजै छै ।।
११. सयं भंते ! नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? असयं
नेरइया नेरइएसु उववज्जति ? १२. गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएसु उबवज्जंति, नो असयं
नेरइया नेरइएसु उबवति । (श० ६।१२५) १३. से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ --....... गंगेया !
कम्मोदएणं, वा०- यथा कैश्चिदुच्यते'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।
(वृ०प० ४५५) १४. कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरुसंभारियत्ताए.
अतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः, (वृ० प० ४५६) १५. एतच्च त्रयं शुभकर्मापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'असुभाण' मित्यादि,
(वृ० प० ४५६) असुभाण कम्माणं उदएणं १६. उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत आह
असुभागं कम्माणं विवागणं, 'विवागणं' ति विपाको यथाबद्धरसानुभूति:,
(वृ०प० ४५६) १७. स च मन्दोऽपि स्यादत आह- (वृ०प० ४५६)
असुभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं नेरइया नेरइएसु
उववज्जंति, १८. से तेणठेणं गंगेया ! एवं बुच्चइ-सयं नेरइया
नेरइएसु उववज्जति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति ।
(श० ६।१२६) १६. सयं भंते ! असुरकुमारा-पुच्छा।
गंगेया ! सयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उबवज्जंति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उववज्जति ।
(श० ६।१२७) २०. से केणठेणं त चेव जाव उववज्जंति ?
गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मविगतीए, 'कम्मविगईए'त्ति कर्मणामशुभानां विगत्या-विगमेन स्थितिमाश्रित्य
(वृ० प० ४५६) २१. कम्मविसोहीए, कम्मविसुद्धीए,
'कम्मविसोहीए' त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविसुद्धीए' त्ति प्रदेशापेक्षया,
(वृ०प०४५६) २२. सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवागणं
सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुर
कुमारत्ताए उववज्जति, २३. से तेणठेणं जाव उववज्जति । एवं जाब थणियकुमारा।
(श०६।१२८) २४. सयं भंते ! पुढविक्काइया-पुच्छा।
गंगेया! सयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएसु उववज्जति नो असयं पुढविक्काइएसु उववज्जति । (श० ६।१२६)
१८. तिण अर्थे ? करिने गंगेया!
पोते नारकी नरक उपजै,
इम आख्यो अवलोई। परवश पड़े न कोई ।।
१६. हे प्रभु ! पोते असुर ऊपजै, के परवश उपजे त्यांही।
जिन कहै असुर ऊपजै पोते, परवश उपजै नांही ॥
२०. ते किण अर्थे ! तब जिन भाखै, कर्म उदै करि जाणी।
कर्म-विगम ते अशुभ कर्म नी, विगम-स्थिति पहिछाणी ॥
२१. कर्म-विसोहि ते रस आश्री, कर्म-विशुद्धी जेहनां ।
कर्म प्रदेश अपेक्षा ए वच, तथा अर्थ इम एहनां ।
२२. शभ कर्म उदय वलि, शुभ कर्म विपाक करीनै लहिये।
पुन्य कर्म फल विपाक करिक, स्वयं असुर ऊपजिये ।
२३. तिण अर्थे करि असुरपणे, पोतेज उपजै ज्यांही।
एवं यावत थणियकुमारा, परवश उपज नाही ।। २४. हे प्रभु! पुढवी उपजै पोते, के परवश उपजै छै?
जिन कहै पृथ्वी उपजे पोते, परवश नांहि पड़े छ ।
श० ६, उ० ३२, ढाल १६३ २२३
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