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६०. एक आकाश अजीव द्रव्य नुं, देश तिहां जिन ब्रूण । जाव सर्व आकाश नं ए, भाग अनंत में ऊण ॥ ६१. काल थकी जे अधोलोक ते, जाव न हुवो किवार ।
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न हुवै न हुस्यै ए नहि तीनूं जाव नित्य सुविचार || ६२. एवं जाव अलोक लगे जे जाव शब्द रे मांय । तिरिय लोक नैं ऊर्द्ध लोक ए, काल थकी कहिवाय ॥ ६३. भाव थकी जे अधोलोक में, अनंत वर्ण पर्याय | जिम अधिकार आयो तेम दहां कहिवाय ॥
६४. जाव अनंत अगुरुलघु पजवा, एवं जावत लोय । जाव शब्द में तिरिय ऊर्द्ध है, भाव थकी ए जोय || ६५. भाव पकीज अलोक विषे जे नहीं
वर्ण पर्याय । जावत नहीं अगुरुलघु पजवा, पुद्गलादिक ए नांय ॥ ६६. एक आकाश अजीव द्रव्य नुं, देश तिहां जिन ब्रूण । जाव सर्व आकाश अछे ए, भाग अनंत में ऊण ।। ६७. शत इग्यारम दशम दोयसौ, बत्तीसमीं ए ढाल । भिक्खु भारीमा ऋषिराम प्रसाद,
'जय जय' मंगलमाल ॥
१. मोटो लोक कितो प्रभु
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ढाल : २३३
हा
! जिन कहै जंबू एह ।
भ्यंतर सगला द्वीप नैं यावत परिधि कहेह ||
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इहां जावत शब्द थकी इम जाणवो
समुद्राणं सव्यन्तराइएसए, बट्टे तेल्लापूरवठाणसंहिए, बट्टेरहचक्कवालसंठाणसंठिए, वट्टे – पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए, वट्टे – पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए, एगं जोयणसयसहस्सं आयाम विक्खंभेणं, तिष्णि जोयणसय सहस्साई सोलससहस्साइं दोण्णि य सत्तावीसे जोयणसए तिष्णिय कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचि विसेसाहियंति ।
* गोयमजी ! सांभलजै चित ल्याय ॥ ( ध्रुपदं ) २. तिण काले नैं तिण समें जी, षट सुर महाऋद्धिवंत । यावत महासुख नां धणी जी, वलि महाईश्वरवंत' ।
*लय : बंधविया ! ए कुण आया रे आज
१. 'महासोक्खे' के बाद मूलपाठ में कोई शब्द नहीं है । किन्तु इससे पहले 'जाव' शब्द है । 'जाव' की पूर्ति इसी ग्रंथ के ३।४ से की गई है। वहां महासोक्खे के बाद 'महाणुभागे' पाठ है । यह जोड़ उसी के आधार पर होनी चाहिए ।
४२२ भगवती जोड़
६०. एगे अजीवदव्वदेसे जाव (सं० पा० ) सव्वागासस्स अतभागणे ।
६१. कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि, न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ
६२. एवं तिरियलोयखेत्तलोए, एवं उड्ढलोयखेत्तलोए एवं अलोए।
६३. भावओ णं अहेलोयखेत्तलोए अनंता वण्णपज्जवा (सं० पा० ) जहा खंड (०२१४५)
६४. जाव (सं० पा० ) अनंता अगरुयलहुयपज्जवा एवं तिरियलोयखेत्तलोए, एवं उड्ढलोयखेत्तलोए एवं लोए । ६५. भावओ णं अलोए नेवत्थि वण्णपज्जवा जाव (सं० पा) ने पनवा ६६. एवे अजीबदबदेसे नाव (सं० पा० ) अणतभागूणे । ( श० ११।१०८ )
१. लोभ ! केमहालए पष्णते ?
गोयमा ! अण्णं जंबुद्दीवे दोने सम्यदीवसमुदागं सव्वभंतराए जाव परिक्खेवेणं ।
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२. ते का ते समए छ देवा महिया जाव महासोश्वा
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१. अलोक में वमेव बावत् गुरुलघुपर्वव नहीं होते, किन्तु अगुरुलघु पर्यव होते हैं। इसलिए 'नेवत्थि गज्जव वहीं वह पाठ होना चाहिए। किन्तु अंगसुताणि भाग २ पृ० ५०८ पा० टि०८ के अनुसार वृतिकार को नेवत्व अगस्यला पाठ उपलब्ध हुआ । उसके अर्थ की संगति बिठाने के लिए वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या इस प्रकार की है - 'अलोक में अगुरुलघु पर्यवों से युक्त द्रव्य पुद्गलों का अभाव है ।' यदि वृत्तिकार को शुद्ध पाठ उपलब्ध होता तो इस व्याख्या की आवश्यकता ही नहीं होती ।
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