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________________ प्रदेशस्तु निरूपचरित एवास्तीत्यत उच्यते'धम्मत्यिकायस्स पएसे' त्ति। (वृ०प० ५२५) 'धम्मत्थिकायस्स पदेस' त्ति धर्मास्तिकाय नों प्रदेश छ। इहां खंध नां अवयव नै नथी वंछ्यो, अंश रहितपणुं ते प्रदेश, ते निरंशपणु बछवे करी प्रदेश का। ५२. तिरछा लोक तण हे प्रभजी ! एक आकाश प्रदेश । स्यू जीवा ? जिम अधोलोक में, आख्यो तेम कहेस ।। ५३. इमाहज ऊंचा लोक विष पिण, णवरं नहि छै काल । सूर्य चार प्रतिबिंब नहीं त्यां, अन्य चिउं भेद निहाल । ५४. लोक तणां इक गगन-प्रदेश विर्ष स्य जीवा स्वाम ! अधोलोक में एक आकाश-प्रदेश विषे तिम ताम ।। ५२. तिरियलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगास पदेसे कि जीवा? एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव ५३. एवं उड्ढलोगरोत्तलोगस्स वि नवरं-अद्धासमयो नत्थि । अरूवि चउब्विहा । (श० ११११०५) ५४. लोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे किं जीवा ? जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि आगासपदेसे । (श० ११।१०६) ५५. अलोगस्स णं भंते ! एगम्मि आगासपदेसे-पुच्छा। गोयमा ! नो जीवा नो जीवदेसा ५६. तं चेव जाव (सं० पा०) अणंतेहिं अगस्यलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासस्स अणंतभागूणे (श० ११।१०७) ५५. अलोक नै प्रभु ! एक आकाश, प्रदेश जीवा आदि । __ श्री जिन भाखै नो जीवा वलि, जीव देश नहि लाधि ।। ५६. तिमहिज जाव अनंत अगुरुलघु गुण करि संयुक्त तास । सर्व आकाश तणेंज अनंतम भाग ऊण आकाश ।। वा०—अलोक ना एक आकाश-प्रदेश नै विष स्यूं जीवा इत्यादि पूछाहे गोतम ! नो जीवा नो जीवदेसा तं चेव जाव-जिम लोक नां प्रश्न नों उत्तर तिमहिज उत्तर। किहां लग कहिव ? नो जीवप्पदेमा नो अजीवा नो अजीवदेसा नो अजीवप्पदेसा एगे अजीवदव्वदमे इहां लगै उत्तर जाव शब्द में जाणवो। जाव शब्द आगे एहवी पाठ - अगुरुयलहुए अणंतेहि अगुरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूण --अगुरुयलहुए त्ति प्रदेश अगुरुलघु छ अनंत अगुरुलधु गुणे करी संयुक्त एहवू एक आकाश प्रदेश छ । वले ते सर्व आकाश अनंत भागरूपपण ऊण एक प्रदेश छ। इहां सव्वागासस्स छठी विभक्ति कही, ते भणी सर्व आकाश नै अनंत भागरूपपणं ऊण ते एक प्रदेश का । अन इण उद्देशेहीज पूर्वे अलोकाकाश नो प्रश्न इम पूच्चो-अलोकाकाश नै विषे हे भगवंत ! स्यू जीवा ? इम जिम अस्तिकाय उद्देशो बीजा शतक न दशमा ने भलायो तिहा नो जीवा इत्यादि छहं बोल न निषेध कह्य-एगे अजीवदब्वदेसे अगुरुयलहुए अणंतेहि अगुरुयलहुयगुणेहि संजुर्त सव्वागासे अणतभागूणे । एहनु अर्थ-ते अलोकाकाश केहवं ? एक आगासस्थिकाय अजीव द्रव्य नु देश छ । वलि अलोकाकाश केहवु छ ? अगुरुलघु छ पिण गुरुलघु नथी। अन अनंता स्वपर्याय परपर्याय रूप गुण अगुरुलघु स्वभाव करिक संयुक्त । सव्वागासे अणंतभागूणे अणंत भाग ऊण सर्व आकाश छै एतले सर्व आकाश ने अणंतवें भाग लोक छै ते माट अणतवें भाग ऊण सर्व आकाश अलोकाकाश ने कह्य । इहा सव्वागासे प्रथम विभक्ति कही ते भणी ए अलोकाकाश लोक जितरो ऊण सर्व आकाश छै अन एक प्रदेश री पूछा में सब्वागासस्स इहा छठी विभक्ति कही ते सर्वाकाश ने अणंतभागरूपपणे ऊण ते एक प्रदेश छ इति तत्वं । ५७. द्रव्य थकी जे अधोलोक में, अनंत जीव द्रव्य त । वलि अनंत अजीव द्रव्य छ, जीवाजीव अनंत ।। ५८. इमहिज तिरछा क्षेत्र लोक में, ऊर्द्ध लोक इम हंत । जीव अनंत अजीव अनंता, जीवाजीव अनंत ।। ५६. द्रव्य थकीज अलोक विषे जे, जीव द्रव्य छै नाय । बलि अजीव द्रव्य पिण नहि छै, जीवाजीव न पाय॥ ५७. दव्वओ णं अहेलोगखेत्तलोए अणता जीवदव्वा अणता अजीवदव्वा अणंता जीवाजीवदव्वा ५८. एवं तिरियलोयखेत्तलोए वि एवं उड्ढलोयखेतलोए वि ५६ दव्वओ णं अलोए नेवत्थि जीवदव्वा नेवत्थि अजीवदव्वा नेवत्थि जीवाजीवदव्वा श०११, उ०१०, ढाल २३२ ४२१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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