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४०. जे जीवपदेसा ते नियम एगिदियपदेसा
४१. अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियस्सपदेसा
४२. अहवा एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पदेसा
४३. एवं आइल्लविरहिओ
४०. जे जीव प्रदेशा ते निश्चै करि, घणां एकेंद्रिय तास ।
बह प्रदेश ए इकसंयोगिक, हिवै द्विकयोग अभ्यास ।। ४१. अथवा घणां एकेद्रिय केरा, घणां प्रदेश तहत ।
एक बेइंद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहंत ।। ४२. अथवा घणां एकद्रिय केरा, घणां प्रदेशज पाय ।
घणां बेइंद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहाय ।। ४३. दशम शतक' में प्रथम उद्देशे, तीन भांगा अख्यात ।
तेह मांहिलो पहिलो भांगो, पावै नहिं विख्यात ।। ४४. धणां एकद्रिय जीव केरा, घणां प्रदेश कहत । इक प्रदेश इक बेइंद्री नों, ए धुर भंग न हुंत ।।
सोरठा ४५. एक आकाश प्रदेश, समुद्घात केवल विना।
इक जंतु नों विशेष, एक प्रदेश न संभवै ।। ४६. एक प्रदेश मझार, केवल विण अन्य जीव नों।
असंख्यात अवधार, तिण स् ए धुर भंग नहीं । ४७. *जाव पंचेंद्री लग इम कहिवो, इकयोगिक भंग एक ।
द्विकसंयोगिक वे भांगा पिण, धुर भांगो नहिं पेख ।। ४८. अणिदिया में इकयोगिक इक, द्विकयोगिक भंग तीन ।
तीनई भांगा नो संभव, केवलि इहां सुचीन ।
४४. 'अहवा एगिदियस्स पएसा य बेदियस्स पएसा य' इत्येवंरूपाद्यभंगकविरहितस्त्रिभंगः ।
(वृ० प० ५२५)
४५,४६. नास्त्येवैकत्राकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विन कस्य
जीवस्यकप्रदेशसंभवोऽसंख्यातानामेव भावादिति ।
४७. जाब पंचिदिएसु
४६. जेह अजोवा ते द्विविध छै, रूपी अजीव हेव ।
अरूपी अजीव छ वली, रूपी नां चिहुं भेव ।।
५०. अरूपी अजीव केरा, पंच भेद कहिवाय ।
नो धमत्थिकाए भाख्यो, ते खंध आश्री नांय ॥ ५१. धर्मास्ति नों देश पावै. तास प्रदेश निहाल ।
अधर्मास्ति नां पिण बेहुं, पंचम अद्धा काल ।।
४८. अणिदिएसु तियभंगो
'अणिदिएसु तियभंगो' त्ति अनिन्द्रियेषक्तभंगकत्रयमपि संभवतीतिकृत्वा तेषु तद्वाच्यमिति।
(वृ० प० ५२५) ४६. जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-रूपी अजीवा
य अरूवी अजीवा य रूबी तहेव । 'रूवी तहेव' त्ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशा अणवश्चेत्यर्थः।
(वृ० प० ५२५) ५०. जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता तं जहा
नोधम्मत्यिकाए ५१. धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसे एवं अधम्मत्थिकायस्स वि (सं० पा०) अद्धासमए।
(श० ११११०४) वा०-'नो धम्मत्थिकाये' त्ति नो धर्मास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे संभवत्यसंख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति । 'धम्मत्थिकायस्स' देसे त्ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथापि देशोऽवयव इत्यनान्तरब्बेनावयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाधर्मास्तिकायस्य देश इत्युक्तं
वा०-'नो धमथिकाए' त्ति एक आकाश प्रदेश नै विषे संपूर्ण धर्मास्तिकाय न संभव । ते धर्मास्ति ने असंख्यात प्रदेश अवगाहीपणा थकी।
'धम्मत्यिकायस्स देसे' त्ति यद्यपि एक आकाश प्रदेश में धर्मास्ति नो प्रदेश होज हवं तो पिण देश नाम अवयव नो छ-'देशोवयवः इति वचनात्' इण कारणे देश प्रदेश नां अभेदोपचार थकी अवयवमात्र नी विवक्षा करी ने अनें निरंशता तेहमें छै तो पिण तेहनी अविवक्षा करी ने धर्मास्ति नो देश इम कह्यो । एतले खंध नां अवयव न देश कहिय अन जेहनों बीजो अंश नहीं ते निरंश नै प्रदेश कहिये । इहां अवयव नी अपेक्षाये देश का अनैं निरंशपणुं पिण तेहनै विषे छ, पिण तेहन वंछ्चो नथी । इण कारण धर्मास्ति नुं देश का।
*लय : तू चामड़ा नी पूतली! भजन कर हे १. भ० १०६ ४२० भगवती-जोड़
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