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________________ जीवदेसावि जीवपएसावि' त्ति । ० यद्यपि धर्मास्तिकायाद्यजीवद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते तथापि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य चावगाहनादुच्यते---'अजीवावि' त्ति ० द्वय्णुकादिस्कन्धदेशानां त्ववगाहनादुक्तम् ---'अजीब देसावि' त्ति ० धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पूदगलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते—'अजीवपएसावि' त्ति । ३२. जे जीवदेसा ते नियम एगिदियदेसा ३३. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे जीव नां घणा देश पिण कहिये । अने एक आकाश प्रदेश में अजीवावि कहिय ते संपूर्ण धर्मास्तिकायादि अजीव द्रव्य एक आकाश प्रदेश में न अवगाहै तो पिण परमाणु द्विप्रदेशिकादि घणां संपूर्ण द्रव्य नो अवगाहक एक आकाश प्रदेश छै ते माटै अजीवावि कहिये । अने अजीवदेसावि ते घणां द्विप्रदेशादि खंध आप आपरा देशनां अवगाहन थकी अजीव नां घणां देश कह्या । अजीवप्पदेसावि कह्या ते धर्मास्ति अन अधर्मास्ति ए बिहुँ नों एकेक प्रदेश अवगाहै। अनै पुद्गल द्रव्य नै घणां प्रदेश अवगाहन थकी एक आकाश प्रदेश में अजीव नां घणां प्रदेश पिण कहियै । ३२. जीव देश ते निश्चै करि बह, एकेंद्रिय बहु देश । इक संयोगिक ए इक भांगो, हिव द्विकयोग कहेस ।। ३३. अथवा बहु एकेंद्रिय केरा, बहु देश कहिवाय । एकबेइंद्री जीव केरो, एक देश तिहां पाय ।। वा०-इहां प्रश्नोत्तर इम कहि—अलोके हे भगवन् ! स्यूं जीव इत्यादि एवं जहा-इत्यादि अतिदेश थी इम कहि अलोयागासे णं भंते ! कि जीवा ? जीवदेसा? जीवप्पदेसा? अजीवा ? अजीवदेसा ? अजीवप्पदेसा? ___ गोयमा ! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो जीवप्पदेसा, नो अजीवा, नो अजीवदेसा, नो अजीवप्पदेसा, एगे अजीवदव्वदेसे अगस्यलहुए अणंतेहि अगरुयलहुयगुणेहि संजुत्ते सव्वागासे अणंतभागूणे ति । तिहां सर्व आकाश अनंत भाग ऊणो। एहनो ए अर्थ-लोक लक्षण समस्त आकाश ने अनंतवें भागे करी न्यून सर्व आकाश अलोक इति । ३४. अथवा घणां एक द्रिय केरा, घणां देश तिम ठाम । घणां बेइंद्री जीव केरा, घणां देश छै ताम ।। ३५. इम जिम दशमें शतक' देखाल्या, तीन भांगा रै मांहि । विचलो भांगो जे नहिं पावै, तेह संभवै नांहि ।। सोरठा ३६. बहु एकेंद्री बहु देश, एक बेइंद्री जीव नां। घणां देश सुविशेष, ए मध्यम भांगो नथी ।। ३४. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३५. एवं मज्झिल्लविरहिओ ‘एवं मझिल्लविरहिओं' त्ति दशमशतप्रदशितत्रिकभंगे। (वृ० प० ५२५) ३६. 'अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियदेसा य' इत्येवंरूपो यो मध्यमभंगस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभंगः । (वृ० प० ५२५) ३७,३८. द्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहवो देशा न सन्ति, देशस्यैव भावात् (वृ० प० ५२५) ३७. एक आकाश प्रदेश, एक बेइंद्री जीव नां । देश बहु न कहेस, ते माट नवि संभवै ।। ३८. एक प्रदेश जोय, एक बेइंद्री जीव नां, ___इक देशज अवलोय, तिण सं ए भांगो नथी । वा०-एक आकाश प्रदेश नै विषे एक बेइंद्री नां घणां प्रदेश छ । पिण एक आकाश एक प्रदेश अवगाह्यां माट तेहनै बेइंद्रिय नों एक देशहीज कहिये। ३६. *जावत अथवा घणां एकद्रिय, घणां देश छै तास । घणां अणिदिया नां बहु देशज, इहा लग सर्व अभ्यास ।। *लय : तू चामड़ा नी पूतली ! भजन कर हे १. भ०१०१६ ३६. जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिदियाण य देसा श०११, उ१०, ढाल २३२ ४१६ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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