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दुच्यते एकेन्द्रियाणां देशाश्च द्वीन्द्रियस्य देशश्चेति द्विकयोगे प्रथमः
(वृ०प० ४६४)
सोरठा ४२. एकेंद्री बहु देश, बेइंदिय अल्पपणे करी।
किहां लहै सुविशेष, एक बेइंदिय देश इक ॥ ४३. *अथवा एकेंद्रिय नां देश बहुला, इक बेइंद्रि नां जाण ।
देश बहु पावै तिण कूणे, द्वितिय भंग इम माण ॥
४३. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स य देसा
अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं देशपदे पुनर्बहुवचनमिति द्वितीयः (वृ०प० ४६४)
४४. अयं च यदा द्वीन्द्रियो द्वयादिभिर्देशैस्तां स्पृशति तदा स्यादिति
(वृ०प० ४६४) ४५. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा।
अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदं देशपदं च बहुवचनान्तमिति तृतीयः (वृ० प० ४६४)
सोरठा ४४. यदा बेइंदिय एक, दोय आदि देशे करी।
फशैं विदिशि विशेख, द्वितिय भंग होवै तदा ॥ ४५. *अथवा एकेदिय नां देश बहुला, बहु बेइंद्रिय नां जाण । देश बहु पावै तिण कूणे, तृतिय भंग इम माण ।
सोरठा ४६. बह बेइंदिय धार, दोय आदि देशे करी।
फर्श विदिशि तिवार, तृतियो भंग हवै तदा ॥ ४७. देश तणां सुविशेष, द्विकयोगिक भंग एह में ।
एगेंदिया बह देश, कहिवा त्रिहं भांगा मझे। ४८. *अथवा एकेंद्री तेइंद्री संघाते, इमहिज त्रिण भंग कहिवा ।
जाव एकेंद्री अणिदिया साथे, तीन भांगा इम लहिवा ।।
४८. अहह्वा एगिदियदेसा य तेइंदियस्स य देसे । एवं चेव
तियभंगो भाणियब्वो । एवं जाव अणिदियाणं तिय
भंगो । ४९. जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदियपदेसा।
४६. जे जीव नां प्रदेश कह्या ते, निश्चै करिने त्यांही। बहु एकेंद्री नां प्रदेश बहु छै, बेंदियादिक नां नाही।
सोरठा ५०. इकयोगिक ए ख्यात, द्विकयोगिक भंग बे हिवै।
प्रथम भंग नहिं पात, न्याय सहित निसुणो सहु ।। ५१. *अथवा एकेंद्री नां प्रदेश बहुला, इक बेइंद्री नों ताय । ___एक प्रदेश ए पहिलो भांगो, अग्नेयी कूण न पाय ।।
सोरठा ५२. तेंद्री जाव अणिद, प्रदेश तणी अपेक्षया।
बहु वचनांत कर्थिद, इक वचनांत हवै नहीं।
५३. लोक व्यापक अवस्थान, अणिद्रिय विण जीव नां।
एक प्रदेशे जान, असंख्यात प्रदेश ह ॥ ५४. अणिद्रिय सुविशेष, सर्व लोक व्यापक यदा।
इक आकाश प्रदेश, एक ईज प्रदेश तसु ।। ५५. तो पिण अणिदिय जोय, तमु प्रदेश पद नै विषे ।
बहु वच निश्चै होय, अग्नि आदि चिउं विदिश में ।। *लय: झिरमिर-झिरमिर मेहा वरसे
५२. एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियः सह
प्रत्येकं भङ्गकत्रयं दृश्यम् एवं प्रदेशपक्षोऽपि वाच्यो, नवरमिह द्वीन्द्रियादिषु प्रदेशपदं बहुवचनान्तमेव ।
(वृ०प०४६४) ५३. यतो लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रक:
प्रदेशस्तत्रासंख्यातास्ते भवन्ति (वृ० ५० ४६४) ५४. लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्यद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे
एक एव प्रदेशः __ (वृ०प० ४६४) ५५,५६. तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्रदेशा
नामसंख्यातानामवगाढत्वाद् (वृ० प० ४६४)
३१४ भगवती-जोड़
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