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७७. नो संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि वि पमोक्ख
माइक्खित्तए तुसिणीए संचिट्ठइ। (श० ६।२३२) ७८. जमालीति समणे भगवं महावीरे जमालि अणगारं
एवं वयासी७६. अत्थि णं जमाली! ममं बहवे अंतेवासी समणा ___निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू । ८०,८१. एवं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो चेव ण
एतप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुम
७७. नहीं समर्थ गोतम प्रतेह, किंचत पिण उत्तर देवो जेह ।
मौनपणे रहै तिहवार, हिव भाखै श्री जगतार ।। ७८. अहो जमाली ! इम आमंत्रह, श्रमण भगवंत महावीर जेह ।
जमाली अणगार प्रतेह, इम भावं प्रभु गुणगेह ।। ७६. अहो जमाली! म्हारा जाण, बहु अंतेवासी पिछाण।
श्रमण निग्रंथ छद्मस्थ ताय, तिके समर्थ छै अधिकाय ॥ ८०. ए प्रश्न नां उत्तर देवां, जिम हूं कहूं तिम स्वयमेवा ।
नहि निश्चै एण प्रकार, भाषा बोलवा ने अवधार ।। ८१. जिम तूं कहै हूं सर्वज्ञानी, तिम कही न सके सुजानी।
इम कहि प्रभु उत्तर आखे, साक्षात देखै तिम दाखे ।।
वा०-एतावता अम्हे जिम कहूं छू प्रश्न नां उत्तर तिम प्रश्नोत्तर कहिवा ने ते मुनि समर्थ छै। पिण जिम तू छद्मस्थ थको कहै छै हूं केवली छु, एहवो वचन ते श्रमण निग्रंथ कही सकै नहीं। एम कही नै भगवान प्रश्नां नों उत्तर आख
यतनी ८२. शाश्वतो छ लोक जमाली ! जे न कदापि न हवो न्हाली।
अनादिपणां थी जाणी, कदे नहि हुओ तिम नहिं ठाणी ॥
८३ नहिं कदापि नहि हुवै जेह, सदैव भाव थी एह।
नहि कदापि नहि लोग, अपर्यवसित भाव थी जोग ।।
२४. तो मयूं तेत्रफी लोक वापोट, हुवे जिवां चै होस्यशेम सोच
८४. तो स्यूं ते भणी लोक ए जोय, हुवो हिरड़ा छ होस्यै ए सोय ।
तिण सं त्रिकाल भावीपणेह, ध्रुव अचल मेरु जिम एह ।।
८५. णितिए कहितां नियताकार, तिको नियतपणां थी विचार ।
शाश्वतो ते खिण-खिण प्रति जोय, अछता नां अभाव थी होय ।।
८२. सासए लोए जमाली ! जंन कयाइ नासि,
'न कयाइ नासी' त्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात्
(वृ० प० ४८८) ८३. न कयाइ न भवइ, न कयाइ न भविस्सइ
न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् न कदाचिन्न
भविष्यति अपर्यवसितत्वात् (वृ० प० ४८८) ८४. भुवि च भवइ य, भविस्सइ य-धुवे
किं तर्हि ? 'भुवि चे' त्यादि ततश्चायं त्रिकालभावित्वेनाचलत्वाद् ध्र वो मेर्वादिवत् ध्रुवत्वादेव
(वृ० प० ४८८) ८५. नितिए सासए
'नियतः नियताकारो नियतत्वादेव शाश्वत: प्रतिक्षण
मप्यसत्त्वस्याभावात् शाश्वतत्त्वादेव (व०प० ४८८) ८६. अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए
अक्षयः निविनाशः, अक्षयत्वादेवाव्ययः प्रदेशापेक्षया अवस्थितो द्रव्यापेक्षया
(वृ०प० ४८८) ८७. निच्चे नित्यस्तदुभयापेक्षया, एकार्था वैते शब्दा:
(वृ०प०४८८) ८८. असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी भवित्ता
उस्सप्पिणी भवइ, ८६. उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ
८६. अक्षय ते विनाश रहीत, अक्षयपणां थी संगीत ।
अव्यय ते प्रदेश अपेक्षाय, अवस्थित द्रव्य आश्रयी ताय ।।
५७. नित्य ते विहं नी अपेक्षाय, द्रव्य प्रदेश आश्रयी ताय ।
अथवा कह्या ए पद सात, एकार्थवाची अवदात ॥ ८८. अशाश्वतो ए लोक जमाली, तेहनों न्याय कहं सूविशाली।
जे अवसप्पिणी थई नै अद्धा, उत्सप्पिणी थाय प्रसिद्धा ।। ९. उत्सप्पिणी थई पश्चात, अवसपिणी हुई विख्यात । कह्य लोक तणुं ए न्याय, हिव जीव नुं कहै जिनराय॥
* सुण रै जमाली ! प्रभूजी भाखै सुविशाली। (ध्रुपदं) १०.जीव शाश्वतो छ रे जमाली ! जे न कदापि न हुआ निहाली। ___यावत नित्य कहीजै ताय, ए द्रव्य जीव नुं अभिप्राय ॥ लय : दशकंधर राजा
१०. सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ नासि जाव
(सं० पा०) निच्चे।
श०६, उ० ३३, ढाल २१४ २९५
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