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वा०-"इहां बैसस्यूं, सूवस्यूं इत्यादिक अनागत काल आश्रयी कहै, जद तो निश्चयकारणी हुवै। पिण ए वर्तमान काल में बैसण, सूवण का भाव, तिवार कहै-हिवड़ा बेसं, शयन करूंछु अथवा ए आश्रयवा जोग वस्तु हिवड़ा आश्रृं छू, इत्यादि कह्यां निश्चयकारिणी नहीं, ए बोलवा जोग छ ते माट। ए भाषा नै प्रज्ञापनी कहिय, पिण मृषा न कहिये। वर्तमान रै समीप ए अनागत काल छ, ते माटवर्तमान कार्य नै विषे आसइस्सामो ए अनागत नों पाठ करा जणाय छ।" (ज० स०) ६. उपलक्षण पर वचन ए, ते कारण थी जाण ।
एहवी भाषाजात नों, पूछयो प्रश्न पिछाण ।। १०. वलि भाषा नी जात नै, परूपवा योग जेह ।
पूछ बे गाथा करी, आमंत्रणी आदेह ।। ११. हे देवदत्त! आमंत्रणी, इत्यादिक अवधार ।
सत्य असत्य मिश्र नहीं, व्यवहार वृत्ति मझार ।।
६.१०. अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजाती
यानां प्रज्ञापनीयत्वं पृष्टमथ भाषाजातीनां तत्पृच्छति -'आमंतणि' गाहा
(वृ० ५० ५००)
१२. आज्ञापनी कारज विष, प्रवर्तीवणहार ।
कहै अमुको कारज करो, घट कर इत्यादि विचार ।। १३. याचणी मांगे वस्तु नैं, पूछणी अर्थ पूछेह ।
जेह अर्थ जाण्यो नहीं, जाणवा अर्थे जेह ।।
१४. प्रज्ञापनी सुविनीत नैं, उपदेशरूप प्रयोग ।
निवत्त प्राणी-वध थकी, ते दीर्घायु अरोग ।।
११. तत्र आमन्त्रणी' हे देवदत्त ! इत्यादिका, एषा च किल
वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनादावुक्ता
(वृ० ५० ५००) १२. 'आणवणि' त्ति आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा घटं कुरु
(वृ० प० ५००) १३. 'जायणि' त्ति याचनी-वस्तुविशेषस्य देहीत्येवंमार्गण
रूपा "पुच्छणी य' त्ति प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा
(वृ० ५० ५००) १४. पण्णवणि' त्ति प्रज्ञापनी-विनेयस्योपदेशदानरूपा
यथापाणवहाओ नियत्ता भवंति दीहाउया अरोगा य
(वृ० ५० ५००) १५. 'पच्चक्खाणीभास' त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्या
दित्सा मे अतो मां मा याचस्वेत्यादि प्रत्याख्यानरूपा भाषा
(व०प०५००) १६. 'इच्छाणुलोम' त्ति प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा
-तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः (वृ०प०५००)
१५. प्रत्याख्यानी जे हवं, मांगे तास निषेध ।
देण तणी इच्छा नहीं, मति मांगो इम भेद ।।
१६. इच्छा-अनुलोमा इसी, बोलै इच्छा लार।
किण कह्यो---ए कारज करां? हां, मुझ पिण रुचिकार ।। १. आमंतणी आणवणी, जायणी तह पुच्छणी य पण्णवणी । पच्चक्खाणी भासा, भासा इच्छाणुलोमा य॥ अणभिग्गहिया भासा, भासा य अभिग्गहम्मि बोद्धब्वा । संसयकरणी भासा, वोयडमव्वोयडा चेव ।।
इन दो संग्रह गाथाओं में असत्यामृषा-व्यवहारभाषा के बारह प्रकार निरूपित हैं। प्रज्ञापना के भाषापद में इनका निरूपण इसी प्रकार हुआ है। प्रज्ञापनी भाषा के प्रस्तुत प्रकरण में प्रासंगिक रूप से ये संग्रहगाथाएं लिखी हुई थीं। किसी प्रतिलिपिकार ने इनका मूलपाठ में समावेश कर दिया। उत्तरकाल में भी यह परम्परा इसी रूप में चलती रही। वृत्तिकार ने भी मूल के साथ ही इनकी व्याख्या कर दी। __अंगसुत्ताणि भाग २ पृ० ४७३ में इनको पा० टि० (४) में उद्धत किया है। उसी के आधार पर इनको जोड़ के साथ न रखकर टिप्पण में रखा गया है।
श० १०, उ०३, ढाल २२० ३२६
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