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१७. अनभिग्रहिता जेहनों, अर्थ न होवे कोय ।
डित्थ डवित्थवत शब्द नों, अर्थ नहीं छै सोय ।। १८. अभिग्रहिता भाषा इसी, अर्थ सहित छै एह ।
घट वस्त्रादिक नीं परै, तास अर्थ समझेह ।।
१६. संसयकरणी इक तणां, अर्थ बहू अवलोय ।
सैंधव शब्द कह्या छता, पुरुष लवण हय होय ॥
२०. वोयड़ व्याकृत स्पष्ट जे, लोक प्रसिद्ध पिछाण ।
भाषा तणों प्रयोग ह, गज अश्वादिक जाण ।। २१. अवोयड ते प्रगट नहीं, शब्द अर्थ गम्भीर ।
अथवा मन्मन अक्षरे, अर्थ न समझे तीर ।। २२. ए भाषा भगवंतजी ! प्रज्ञापनी कहाय ?
स्पष्ट अर्थ प्रकटनपरा, मृषा न कहियै ताय ?
१७. अणभिग्गहिया भासा' अनभिग्रहीता-अर्थानभि__ग्रहेण योच्यते डित्यादिवत् (वृ० ५० ५००) १८. 'भासा य अभिग्गहंमि बोद्धव्वा' भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्
(वृ०प० ५००) १६. 'संसयकरणी भास' त्ति याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा
संशयकरणी यथा सैन्धवशब्द: पुरुषलवणवाजिषु वर्तमान इति
(वृ०प०५००) २०. 'वोयड' त्ति व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था
(वृ० ५० ५००) २१. 'अव्वोयड' त्ति अव्याकृता-गम्भीरशब्दार्था मन्मना
क्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भावितार्था (वृ० ५० ५००) २२. 'पन्नवणी णं' ति प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी
अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः (वृ० ५० ५००)
न एसा भासा मोसा? २३. हंता गोयमा ! आसइस्सामो तं चेव जाव (सं० पा०)
न एसा भासा मोसा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति। (श० १०॥४०,४१)
२३. जिन कहै हंता गोयमा ! आश्रयस्यूं ए आदि।
जाव मृषा भाषा नहीं, सेवं भंते! सेवं भंते!साधि ।।
२५. पृच्छतोऽयमभिप्राय:-आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा
भविष्यत्कालविषया सा चान्तरायसम्भवेन व्यभिचारिण्यपि स्यात्तथा (वृ० १०५००)
२६,२७. उत्तरं तु 'हंता' इत्यादि इदमत्र हृदयम् -
आश्रयिष्याम इत्यादिकाऽनवधारणत्वाद्वर्तमानयोगेनेत्येतद्विकल्पगर्भत्वात्. (वृ० ५० ५००)
सोरठा २४. निरर्थक वच ओलखाय, कहिये डित्थ डवित्थ भणी।
एम बतावा ताय, योग्य परूपण इम हुवै ।। २५. इहां पृच्छा अभिप्राय, आश्रयस्यूं ए आदि दे।
काल अनागत मांय, कार्य न थयां असत्य हवै।। २६. उत्तर तेहनों आर्य, निश्चयकारणी ए नहीं।
वर्तमान जे कार्य-काल मझे बोल्यां छतां ।। २७. वर्तमान रै जोग, बेसू सोव इम कह यां।
असत्य तणो न प्रयोग, इम नहिं निश्चयकारणी ।। २८. तथा पाठ में जाण, आसइस्सामो बहु बचन ।
इक वच विषय पिछाण, ए बह वच किण कारणे ।। २६ उत्तर तेहनों एह, आत्म विषे वलि गुरु विषे ।
एकार्थ विषयेह, आज्ञा छै बहु वचन नी ।। ३०. तिण स्यूं भाषा एह, कहियै कहिवा योग्य ए।
तेहनं नाम कहेह, प्रज्ञापनीज जाणवू ।
वा०-तथा आमंत्रणी आदि पिण वस्तु विषे विधि ते कार्य नो करिवो अनै प्रतिषेध ते कार्य करिवा नों निषेध करिवो ए बिहुं नी कहिणहारी नहीं । पिण जे निरवद्य पुरुषार्थ साधनी प्रज्ञापनीज कहिये। प्रज्ञापनी कहिता ए भाषा बोलवा योग्य जाणवी। ३१. *दशम शते तीजो कह्यो, दोयसौ वीसमी ढाल ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरय विशाल ।।
२६,३०. गुरी चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्यानुमतत्वात्प्रज्ञापन्येव
(वृ० ५० ५००)
वा०-तथाऽमन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या निरवद्यपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येवेति ।
(वृ० प० ५००)
३१. दशमशते तृतीयोद्देशकः
(वृ० ५० ५००)
*लय : राम पूछ सुग्रीव ३३० भगवती-जोड़
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