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________________ ६४. स्नान करि यावत जिणे,ग्रह्या निर्योग परिकर जेण। जमाली क्षत्रियकुमार नी, सिविका वहै शुभ श्रेण ।। ६५. दोयसौ में इग्यारमी, ढाल विशाल सुचंग। जमाली चरण लेवा भणी, त्यार थयो मन रंग ।। ६४. ण्हाया जाव एगाभरणवसण-गहियनिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहति । (श० ६।२०३) ढाल : २१२ १. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्स वाहिणि सीयं दुरुढस्स समाणस्स २. तप्पढमयाए इमे अट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुब्वीए संपट्ठिया ३. 'अट्ठमंगलग' त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्व चनं मंगल कानि मांगल्यवस्तूनि (वृ० प० ४७९) ४. अन्ये त्वाः-अष्टसंख्यानि अष्टमंगलकसंज्ञानि वस्तूनि (वृ०प० ४७६) ५. तं जहा- सोत्थिय-सिरिवच्छ जाव [सं० पा०] दप्पणा दूहा १. तब जमाली क्षत्रिय-सुत, वहै जसु पुरुष हजार । एहवी वर सिविका प्रते, चढये छते अवधार ।। २. विवक्षित वस्तू मझे, प्रथमपण ते मंत । मंगलीक अठ-अठ क्रमे, मुख आगल चालंत ।। ३. अष्ट-अष्ट बे वार जे, अत्र शब्द आख्यात । वीप्सा विषेज द्विवचन, मंगल वस्तू ख्यात ।। ४. अन्य आचार्य इम कहै, अठ-अठ संख्यक जाण । आठ मांगलिक वस्तु जे, चालै आगीवाण ।। ५. अष्ट मंगल कहिये तिके, प्रथम साथियो पेख । श्रीवत्स यावत जाणवो, दर्पण अष्टम देख ।। सोरठा ६. जाव शब्द थी जोय, नंद्यावर्त निहालियै । __ बर्द्धमान अवलोय, तेह सराव कही जिये ।। ७. अन्याचार्य कहेह, पुरुषारूढज पुरुष ए। फुन अन्य इम आखेह, स्वस्तिक पंचक ए अछै ।। ८. फुन अन्य कहै प्रासाद, भद्रासण ने कलश फुन । मच्छयुग्म अहलाद, जाव' शब्द में पंच ए॥ *जी कांइ चरण लेवा नै संचर्यो, जी कांइ खत्रियकुंवर धर खंत । (ध्रुपदं) ६. तदनंतर चालै तदा जी काइ, पूर्ण कलश भंगार । जिम उववाई में विषे जी काइ, जाव गगन तल धार ॥ ६. णंदियावत्त-वद्धमाणग तत्र वर्द्धमानकं-शरावं (वृ० प० ४७६) ७. पुरुषारूढपुरुष इत्यन्ये स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये (वृ० प० ४७६) ८. भद्दासण-कलस-मच्छ प्रासादविशेषमित्यन्ये (बृ० प० ४७६) ६. तदाणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं जहा ओववाइए (सू० ६४) जाव (सं० पा०) गगणतलमणुलिहंती. सोरठा १०. वाचनांतरे वाय, दीसै छै साक्षात ए। ते छै इहविध ताय, चित लगाई सांभलो ।। १०. 'जहा उववाइए' (सू० ६४) त्ति अनेन च यदुपात्तं तद्वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति तच्चेदं (वृ० प०४७९) गीतक-छंद ११. वर दिव्य छत्र सहीत जे, पताक चामर सहित ही। फून रचित आरीसो जिहां, अतिहीज उच्चपणे रही। * लय: म्हारी सासूजी रै पांच पुत्र ११-१३. दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसण-रइयआलोय दरिसणिज्जा वाउद्धय-विजयवेजयंती य ऊसिया' गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुब्बीए संपविया । २७२ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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