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७९. अप्पेग इया देवा चउव्विहं गेयं गायंति, तं जहाउक्खित्तायं पायंतायं मंदायं रोइयावसाणं ।
(राय० सू० २८१)
७६. केइ चउविध गावै गीतं, उक्खित्तं पायताय पुनीतं।
तृतीय मंदाय सुजानं, तूर्य रोइय ते अवसानं ।।
वा० - कोइक देवता चिहुं प्रकारे गीत गाव, ते कहै छ-उक्खित्तायप्रथम गीत प्रारंभ्यो छ । पायत्ताय-चिहुं चरणे बांध्यो। मंदाय-मध्य भागे मूच्र्छनापूरय गुण करी । छेहड़े रोइयावसाण-चोरिवा योग्य थया । १०. केइ शीघ्र नाटक विधि देखाडे, केइ नाटक विलंबित पाई।
केइ दूत-विलंबित विद्ध, एहवा नाटक देखा. प्रसिद्ध ।।
८१. केइ अंचित नाटक देखाई, केइ आरभित नाटक पाई। __ केइ अंचित-आरभित विद्धि, नाटक उभय देखाई समृद्धि ।
८०. अप्पेगतिया देवा विलंबियं दुयं नट्टविहिं उवदंसेंति ।
अप्पेगतिया देवा विलंबियं णट्टविहि. उवदंसेंति । अप्पेगतिया देवा दुय-विलंबियं णट्टविहिं उवदंसेंति ।
__(राय० सू० २८१) ५१. अप्पेगतिया देवा अंचियं नट्टविहिं उवदंसेंति ।
अप्पेगतिया देवा रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगइया देवा अंचिय-रिभियं नट्टविहिं उवदंसेंति ।
(राय० सू० २८१) ८२. अप्पेगइया देवा आरभडं नट्टविहिं उवदंसेंति ।
अप्पेगइया देवा भसोलं नट्टविहिं उवदंसेंति । अप्पेगइया देवा आरभड-भसोलं नट्टविहिं उवदंसेंति
(राय० सू० ३८१) ८३. अप्पेगइया देवा उप्पायनिवायपसत्तं संकुचिय-पसारियं रियारियं
(राय० सू० २८१) ८४. भंत-संभंतं णामं दिव्वं णट्टविहिं उवदंसेंति ।
(राय० स० २८१)
८२. केइ आरभड नाटक देखाड़े, केइ भसोल नाटक पाई। केइ आरभड-भसोल पिछाणी, नाटक देखाडै उचरंग आणी।।
गीतक-छंद ८३. ऊंचोज उत्पतवै करी फून, अधो पड़वं व्यापवं ।
संकोचवू ज पसारवू, गमनागमन फुन थापq ॥ ८४. वलि भ्रत भाव संभ्रत भाव ज, नाम दिव्य प्रधान ही।
ए नृत्यविधि आरभड़ भसोलज, सर दिखाई जान ही। ५५. उत्पात पूर्व निपात, जेह में ते उत्पात-निपात ही।
पहिलं पड़ी ने ते पछ, उत्पात ऊंचो जात ही। ८६. निपात पूर्व उत्पात जेह में, ते निपात-उत्पात ही।
उत्पत्य ऊंचो जई पहिला, पछै नीचो आत ही। ८७. संकुचित पूर्व प्रसारितं जे, ते संकुचित-प्रसारितं ।
पहिला पसारी नै पछै संकोचिवू इम कारितं ।। ८८. इम गमन नैं आगमन आख्यूं, अर्थ पूरववत वही।
इम भ्रत नैं संभ्रत नामे दिव्य नाटक विध कही।
वा०-उत्पात ते ऊंचो जायवू, पिण पूर्व निपात-नीचुं पड़वू छै जेहन विषे, एतले पहिला नीचो जई पछै ऊंचो जाय ते उत्पात-निपात कहिये । इम निपात ते नी पड़वू, पिण पूर्व उत्पात-ऊंचो जायवू छ जेहन विषे एतले पहिला ऊचो जई पछै नीचो पड़े ते निपात-उत्पात कहिये । इम संकुचित-प्रसारित नां बे भेद । इम गमन ते जायवू अन आगमन ते आयवं, तेहनां बे भेद । इम भ्रंत संभ्रत कहिवू । ए सर्व भेद 'आरभड-भसोल' नाटक नां छै । ते आरभड. भसोल एहवं नाने दिव्य नाटक विध देखाई। ८९. केइ षट-भाषा' च्यार प्रकारो, बोली देखा. सूर धर प्यारो।
ते दाष्टीतादिक धारो, नाटक ग्रंथ मांहि अधिकारो। *ज्यार शोभ केसरिया साड़ी लय : थे तो चतुर सीखो सुध चरचा १. षभाषा मूल पाठ में नहीं है । जयाचार्य ने अपनी दृष्टि से व्याख्या दी है।
शायद टब्बे आदि के आधार पर यह पद्य लिखा गया है।
वा०-उत्पातपूर्वो निपातो यस्मिन् स उत्पातनिपातस्तं एवं निपातोत्पातं संकुचितप्रसारितं भ्रान्तसंभ्रान्तं नाम आरभटभसोलं दिव्यं नाट्यविधिमुपदर्शयन्ति ।
(राय० वृ० प० २४८)
श० १० उ०६, ढाल २२४
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