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६८. केइ लीपै धवल विमानं, गोसीस सरस सुविधानं । पुरन्दर।
रक्त चन्दन करि सीधा, पंचांगुलि हाथा दीधा ।। शक्र० ।
६६. केइ द्वार मैं देश भागेह, चंदन' चचित घट स्थापेह।
बले शोभन तोरण सारं, एहवा कीधा अधिक उदारं ।।
७० बांधै वर्तल
ना सुगंध,
७०. केइ नीचली भूमि थी ताह यो, ऊपर चंदवा लग अधिकायो।
बांध वर्तुल बहु पुष्पमाला, वारू लंबायमान विशाला।। ७१. केइ पंच वर्ण नां सुगंध, मूकै पुष्प-पंज स खकंद।
तेहिज पूजा उपचार सहीतं, एहवो करै विमाण स रीतं ।। ७२. केइ सुधर्मावतंस विमाणं, वर कृष्णागर कुंदरुक्कं जाणं ।
सेल्हा रस नां धूप करि जेह, मघमघायमान करेह ।।
वो कर विम
७३. केइ सुगंध पवर गंध युक्तं, गंध नी वातीभूत प्रयुक्तं ।
सुर एहवो विमाण करेह, अति उचरंग हरष धरेह ।। ७४. *केइ हिरण्य सुवर्ण वर्षायो, बले रत्न-वर्षा करै ताह्यो।
वलि फूल नी वृष्टि करेहो, फल वृष्टि करै धर नेहो ।।
६८. अप्पेगतिया देवा सोहम्मवडेंसयं विमाणं लाउल्लोइय
महियं गोसीस-सरस-रत्तवंदण-दद्दर-दिण्ण-पचंगुलितलं करेंति ।
(राय० सू० २८१) ६६, अप्पेगतिया देवा..."उवचिय......."वंदणघड-सुकय तोरण-पडिदुवार-देसभागं करेंति ।
(राय० सू० २८१) ७०. अप्पेगतिया देवा" आसत्तोसत्त-विउल-वट्टवग्धारिय
मल्ल-दाम-कलावं करेंति (राय० सू० २८१) ७१. अप्पेगतिया देवा "पंचवण्ण-सुरभि मुक्कपुप्फपुंजोव.
यारकलियं करेंति । (राय० सू० २८१) ७२. अप्पेगतिया देवा सोहम्मवडेंसयं विमाणं कालागरु
पवरकुंदुरुक्क-तुरुक्क-धूव-मघमधेत - गंधुद्धयाभिरामं करेंति ।
(राय० सू० २८१) ७३. अप्पेगइया देवा "सुगंधगंधियं गंधवट्टि भूतं करेंति ।
(राय० सू० २८१) ७४. अप्पेगतिया देवा हिरण्णवासं वासंति, सुवण्णवास
वासंति रयणवासं वासंति"" " पुप्फवासं वासंति
फलवासं वासंति । (रा य० सू०२८१) ७५. मल्लवासं वासंति, गंधवासं वासंति चुण्णवासं वासंति
आभरणवासं वासंति। (राय० सू० २८१) ७६. अप्पेगतिया देवा हिरण्णविहिं भाएंति एवं --सुवण्णविहि रयणविहिं पुप्फविहि..."भाएंति ।
(राय० सू० २८१) हिरण्यविधिहिरण्यरूपं मंगलभूतं प्रकार
(राय० वृ०प० २४७) ७७. अप्पेगतिया देवा चउन्विहं वाइत्तं वाएंति--ततं विततं
(राय० सू० २८१) ७८. घणं सुसिरं
(राय० सू० २८१)
७५. वलि फूलमाल वर्षायो, आभरण नी वृष्टि' सुहायो।
करै गंध कपुरादिक वृष्टि, चूर्ण वृष्टि अबीरादि इष्टि ।। ७६. केइ रूपा नी विध मंगल भूतो, अन्य सुर भणी दै शुभ सूतो।
इम सुवर्ण रत्न प्रकारो, सुर दिये फलादिक सारो।
आभरणवास
७७. केइक सर वलि ताह्यो, चिउंविध वाजंत्र वजायो।
ततं कहितां मृदंग पडहादि, विततं कहितां वीणादि ॥ ७८. घन कहितां कंसादि, झसिर शंख काहलादि।
ए बाजिंत्र च्यार प्रकारो, ए तो देव बजावै उदारो॥ "लय : थे तो चतुर सीखो सुध चरचा १. रायपसेणइयं सूत्र २८१ में वंदण कलश और वंदणघड इन दो शब्दों का उल्लेख
है। जोड़ में चन्दनचचित घट लिखा हुआ है। यहां दो बिन्दु चिन्तनीय हैं.. कुछ प्रतियों में चंदन कलस और चंदन घड दोनों पाठ हों और कुछ प्रतियों में
केवल चंदण घड पाठ ही हो । ० कुछ प्रतियों में वंदणकलस और वंदणघड पाठ है जहां वंदणकलस पाठ है वहाँ पाठान्तर की कोई सूचना नहीं है। ऐसी स्थिति में यह अनुमान किया जा सकता है कि लिपि दोष के कारण चंदण का वंदण अथवा वन्दन का चंदण हो गया हो। जोड़ में चंदण होने पर भी 'रायपसेणइयं' में स्वीकृत पाठ वंदण को ही उसके सामने उद्धृत किया गया है । आगे की गाथाओं के सामने भी यही पाठ उद्धृत है। . २. रायपसेणइयं में मल्लवासं के बाद गंधवासं चुण्णवास पाठ है । उसके बाद
आभरणवास है । जोड़ में क्रम का व्यत्यय है। संभव है कुछ आदर्शों में पाठ का क्रम यह रहा होगा।
.३५२ भगवती-जोड़
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