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________________ वा०—केतलायक देवता ध्यार प्रकारे षट भाषा बोली देखाड़े, ते च्यार प्रकार कहे १. दातिक २. प्रात्यंतिक ३. सामंतोपपातिक ४. लोकमध्यावसान - ए चिहुं पद नीं व्याख्या नाटक ग्रंथ थकी जाणवी । ६०. केयक देव बुक्कारे, म्हांसू युद्ध कर तूं इहवारे । केइ प्रीणे धरी अहंकारो, आतम स्थूल करै तिहवारो ॥ १. केइ लास्य रूप नाटक पाड़े, केइ ताण्डव नाटक देखाड़े । केइ च्यारूं साथ सुवासो, इम कर रह्या देव तमासो || १२. केइ देव आस्फोटन करता, मही प्रमुख कर यूं हणंता । के देव बिल मांहोगां ह्यो, केद्र त्रिपदी छेद कर ताह्यो । १३. केइ आस्फोटन पिण ताह्यो, वले वल्गावं ते मांहोमांह्यो । वलि त्रिपदी छेद सांकल तोड़े, एह तीनूंई विध प्रति जोड़े ॥ १४. केइ ह जिम कर होसारो, केइ गज जिम गुलगुलाटकारो । के रथ जिम करें घणघणाटो, केइ तीनू करें सुर बाटो । ५. सुरजले स्वयमेवा के विशेषले देवा । केइ पेला नीं कूटि काउंता के देव तीनूंई करता ॥ ९६. के उड़ जाय ऊंचा आकाशो, केद्र देव नीचा पढे तासो । केइ कूदी - कूदी तिरछा पड़ता, केइ देव तीनूंई धरता ॥ ७. केइ सुरसिंहनाद करता, केइ पग केइ भूमि चपेटा देव के देव 1 १८. केइक देव गावंता, केइ विजल जिम चमकता । केयक मेह वर्षाय, फेइ देव तीनूं करें ताय ॥ करि भूमि कूटता । तोनूई करेवे ॥ १६. के ज्वलं देवा, छै केइ त केइ त छै विशेख, केइ कार्य तीनूं *लय : ज्यांरं शोमं केसरिया साड़ी ३५४ भगवती जोड़ Jain Education International ततसेवा । उवेख ॥ १०. अप्पेगतिया देवा बुक्कारेंति अप्पेगतिया देवा पीर्णेति । (शद० ० २८१) अप्येकका देवानका कुर्वन्ति पीनमन्ति पीन. मात्मानं कुर्वन्ति - स्थूला भवन्तीत्यर्थः ( राय० वृ० प० २४८ ) ६१. अप्पेगतिया लासेंति । अप्पेगतिया तंडवेंति । अप्पेगतिया बुक्कारेंति, पीर्णेति, लासेंति, तंडवेंति । (राम० सू० २६१) लासयन्ति लास्यरूपं नृत्यं कुर्वन्ति ताण्डवयन्ति - ताण्डवरूपं नृत्यं कुर्वन्ति । (राय० वृ० प० २४८ ) ६२. अप्पेगतिया अप्फोडेंति । अप्पेगतिया वग्गति । अप्पेगतिया तिवई छिदंति । ( राय० सू० २८१ ) आस्फोटयन्ति भूम्यादिकमिति गम्यते । (राज० ० ० २४८, २४९ ) ६३. अप्पेगतिया अप्फोडेंति वग्गंति, तिवई छिदंति । (राय० सू० २५१) १४. अप्पेतिया सियं करेति । अगतिया हत्यिगुलगुलाइयं करेति । अपेगतिया रहपणपणाश्यं करेति । अप्पेगतिया सयं करेति रियललाइ त रहघणघणाइयं करेंति । ( राय० सू० २८१ ) २५. अपेगतिया उच्छले अप्पेगतिया पोण्डलति अप्पेवतिया उविकट्ठियं करेति अप्पेगतिया उच्छति पोच्छति उक्किद्रयं करेति (राम० सू० २८१ ) ६६. अप्पेगतिया ओवयंति, अप्पेगतिया उप्पयंति अप्पेगतिया परिवयंति अप्पेगइया तिण्णि वि । (राय० सू० २०१) परिपतन्ति - तिर्यक् निपतन्तीत्यर्थः (राय० ० ० २४९ ) ७. अप्पेगइया सीनायं नयंति अप्पेगतिया पाददद्दयं करेंति । अप्पेगतिया भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगतिया तिणि वि । ( राय० सू० २८१ ) अप्पेगतिया विज्जुयायंति, अप्पेगतिया तिष्णि वि (राय० सू० २०१) तयंति अप्पेगतिया ६८. अप्पेगतिया गज्जंति अप्पेगइया वा वासंति करेंति । १. अतिया जति अति पतवेंति, अप्पेगतिया तिष्णि वि । For Private & Personal Use Only (राय० सू० २८१) www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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