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उक्कोसपए जीवपदेसा विसेसाहिया।
(श० ११।११३)
२४. पद जघन्य करिक जीव नां ज, प्रदेश थी सुविचारिय।
जे लोक में सह जीव द्रव्य, असंख गुण अवधारियै ।। २५. फून तेहथी जे इक आकाश-प्रदेश में जु कहीज ही। उत्कृष्ट पद करि जीव नांज, प्रदेश तेह विशेष ही।
सोरठा २६. तिहां जघन्यपदे इम हत, लोक अंत गोला प्रतै ।
बिहुं दिशि नां फर्शत, निगोद नां गोला भणी ।। २७. शेष दिशा जे तीन, तेह अलोके आवरी।
खंड गोल ए चीन, इम थोड़ा ए सर्व थी। २८. मध्य लोक सुविशेष, जे गोला षट दिशि तणां ।
निगोद नांज प्रदेश, फर्श छे इण कारणे ।। २६. उत्कृष्ट पदे विचार, जीव प्रदेश कह्या घणां ।
लोकांत विण अवधार, खंडगोलका न हुवै। ३०. संपूरण जे गाल, लोक मध्य निश्चैज ह।
खंड गोल दिल तोल, ते तो लोकांतेज ह। ३१. सर्व लोक रै माय, गोला अछ निगोद नां।
कह्यो वृत्ति थी न्याय, सेवं भंते ! सत्य वच ।। ३२. *एकादशमां नों दशमो न्हाल, दो सौ पैंतीस मी ढाल हो, प्र०। भिक्खु भारोमाल ऋषिराय, 'जय-जश' सुख संपति पाय हो, प्र०॥
॥इति एकादशशते दशमोद्देशकार्थः ।।११।१०।।
२६,२७. तत्र तयोर्जघन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकान्ते
भवति 'जत्थ' ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, शेषदिशामलोकेनावृतत्वात्, सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः ।
(वृ० ५० ५२८) २८,२६. 'छद्दिसिं' ति यत्र पुनर्गोलके षट्स्वपि दिक्षु
निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्च समस्तगौलैः परिपूर्ण गोलके भवति, नान्यत्र,
खण्डगोलके न भवतीत्यर्थः (वृ० प० ५२८) ३०. सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति ।
(वृ० प० ५२८) ३१. सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ।
(श० ११।११४)
ढाल : २३६
दूहा
१. दशमां उद्देशक विषे, कह्यो लोक विस्तार ।
लोक विषे हिव काल द्रव्य, कहिये ते अधिकार ।। २. तिण काले नैं तिण समय, वाणियग्राम सुजान ।
नामैं नगर हुँतो वर्णन, दूतिपलास उद्यान ।।
३. जावत-पुढवीशिलापट, वाणिय ग्रामे जान ।
सेठ सुदर्शन नाम तसं, वसै अधिक ऋद्धिवान ।। ४. जावत गंज न को सकै, श्रमणोपासक तेह ।
जाण्या जीव अजीव नैं, जावत विचरै जेह ।। ५. समवसरया स्वामी तिहां, यावत परषद आय ।
सेव करै त्रिहं जोग करि, निरख निरख हरषाय ।। *लय : स्वामीजी ! थारा दर्शन ४२८ भगवती-जोड़
१. अनन्तरोद्देशके लोकवक्तव्यतोक्ता, इह तु लोकवतिकालद्रव्य वक्तव्यतोच्यते
(वृ० प० ५३२) २. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नगरे होत्था—वण्णओ।
दूतिपलासे चेइएवण्णओ। ३ जाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे
सुदंसणे नामं सेट्ठी परि वसइ-अड्ढे ४. जाण बहुजणस्स अपरिभूए समणोवासए अभिगय
जीवाजीवे जाव... 'विहरइ । ५. सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासइ ।
(श० १११११५)
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