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________________ ६१. अष्ट चूर्ण-पेसी वलि जी कांइ. तंबूल चूर्ण ताम । अथवा जे गंध द्रव्य नैं जी कांइ, चूर्ण कहियै आम ।। ६२. कीड़ करावे ते सही जी कांइ. दास्यां आठ उदार । देवै अष्ट दास्यां वलि जी कांइ, रमण हसावणहार ।। ६१. अट्ठ चुण्णगपेसीओ 'चुन्नगपेसीओ' त्ति इह चूर्णः-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा __ (वृ० ५० ५४८) ६२. अट्ठ कीडागारीओ, अट्ठ दवकारीओ 'दवकारीओ' त्ति परिहासकारिणी: (वृ०प०५४८) ६३. अट्ठ उवत्थाणियाओ, अट्ठ नाडइज्जाओ अट्ठ कोडुबि ६३. अठ आसन समीप वेस तिके जी कांइ, नाटक संबंध नी अष्ट । आज्ञाकारणी अठ वलि जी कांड, सेवग रूपी श्रिष्ट । णीओ ६४. अष्ट रसोईकारिका जी कांइ. अष्ट रुखाल भंडार । शेष बोल कहिस तिके जी कांड, रूढि कह्यो वृत्तिकार ।। 'उवत्थाणियाओ' त्ति या आस्थानगतानां समीपे वर्तन्ते 'नाडइज्जाओ' त्ति नाटकसम्बन्धिनी: (वृ०प०५४८) ६४. अट्ठ महाणसिणीओ, अट्ठ भंडागारिणीओ 'महाणसिणीओ' त्ति रसवतीकारिकाः शेषपदानि रूढिगम्यानि (वृ० ५० ५४८) ६५. अट्ट अब्भाधारिणीओ, अट्ठ पुप्फघरणीओ ६६. अट्ट पागिघरणीओ, अट्ठ बलिकारीओ, अट्ठ सेज्जा कारीओ ६७. अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ बाहिरियाओ पडिहारीओ ६८. अट्ठ मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीओ ६५. धरणहार बालक तणी जी कांइ, तेह रुखालै बाल । रुखवाले घर पुष्प नां जी कांइ, अठ-अठ दास्यां न्हाल ।। ६६. पाणी घर रुखवालती जी कांड, अठ बलिकारक जाण । पवर सेज नी कारिका जी कांइ. अठ-अठ दास्यां माण ।। ६७. अभ्यंतर प्रतिचारिका जी काइ, भ्यंतर कार्य पिछाण । बाहिरली प्रतिचारिका जी कांड, अठ-अठ दास्यां जाण ।। ६८. करणहार माला तणी जी कांड, दास्यां आठ उदार । पीसण वाली अठ वलि जी काइ, देव हर्ष अपार ।। ६६. अपर अनेरो पिण घणु जी काइ, रूपो हिरण सुवन्न । कांसी – वस्तर वलि जी काइ, देवै होय प्रसन्न । ७०. विस्तीर्ण धन कनक ने जी कांइ. यावत द्रव्य विद्यमान । आप अति उचरंग सू जी कांइ, हाथ खरचवा जान ।। ७१. जाव वंश सप्तम लगे जी काइ, अति बहु देता धन्न । अति भोगविवा बेहचवा जी कांइ, आपै द्रव्य राजन्न ।। ७२. दोयसौ – चमालीसमी जी कांइ. ढाल विशाल रसाल । भिक्ष भारीमाल ऋषिराय थी जी कांइ. 'जय-जश-मंगलमाल ।। ६६. अण्णं वा सुबहुं हिरणं वा सुवण्णं वा कसं वा दूसं ७०. विउलधणकणग जाव (सं० पा०) संतसारसावएज्ज ७१. अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं पकामं भोत्तुं पकामं परिभाएउ । (श०१०१५९) ढाल : २४५ दूहा १.तिण अवसर महाबल कंवर, इक-इक त्रिय मैं ताम । दिया रुपैया रोकड़ा, इक-इक कोड़ अमाम ।। २. आप इक-इक कोड़ फुन, सोनैया सुखदाय । मुकुट दिया इक-इक वली, प्रवर मुकुट रै माय ।। १. तए णं से महब्बले कुमारे एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्णकोडि दलयइ २. एगमेगं सुब्वण्णकोडिं दलयइ, एगमेगं मउडं मउडप्प वरं दलयइ १. देना । ४६० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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