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________________ १२६. जावित्री सुविचार, तो किण कारण जमाली अणगार काल नें समय करीने काल, लंतक कल्प विषे ते न्हाल ॥ सुर किल्विधिका नज विषे कहै गोयम ! सुण चित ल्याय ॥ आचार्य नं ते प्रत्यनीक । प्रत्यनीक निदक पहिछाण ॥ तेहनुं अयशकारक अधिकाय । दग्ध बीज करतो अवलोय || पाली अर्द्धमास नीं ताय तीस भक्त अणसण कर छेद ॥ अणपड़िकमिये छते फुन जोय । लंतक कल्पे जाव उत्पन्न ॥ १३७. सागर तेर ती स्थितिह, देवपण ते ऊपनों जाय ? जिन १३८. जमाली अणगार अलीक, उपाध्याय नुं वलि ते जाग, १३६. आचार्य नै वलि उपाध्याय, अवर्णकारक जावत जोय, १४०. बहु वर्ष चारित्र पर्याय, संलेखणा करिनैं संवेद, १४१ तह स्थानक ने अणआलोय, काल ने समय काल कर जन्न, १४२. हे प्रभुजी ! जमाली देव, ते सुरलोक थकी स्वयमेव । आउसो क्षय करिने ताम, जावत उपजस्यै किण ठाम ? १४३. तब जिन कहै चत्तारि पंच, तिरि मनु सुर भव ग्रहण सुसंच । संसार भ्रमण करीनें तेह, तिवार पछै सीभस्यै जेह ॥ १४४. जायत करस्यै दुख न अंत, सेवं भंते! सेवं भंत तहत्ति भगवंत ! तहत्ति भगवंत ! आप तणां वच सत्य उदंत ॥ १४५. केइ जमाली नो भव पर कहंत, केई कहे भवबीज त केक सप्तबीस कहै ताय, निश्च जाणै श्री जिनराय ॥ सोरठा १४६. अथ श्री महावीर प्रव्रज्या ! इह विध प्रश्न प्रकार पूछये तसु १४. अवश्यंभावी होणहार, महानुभाव वा इहां गुण भगवंत, जे सर्वज्ञपणां थकी । सगलो ए वृत्तंत, जमाली नों जाणता || १४०. किम एहनें अवधार, दीधी प्रभु उत्तर हि ॥ मेटवा । देखी प्रभु । पिग समर्थ नहीं लिगार, भगवान, विधे । १४. अमूढ-लक्ष निष्प्रयोजन क्रिया प्रवर्त्ते प्रवसे नहीं सुजान, वृत्तिकार इम आखियो || १५०. वली जमाली चरणधर । सही ॥ लार, थया पंच सय भव घटता देखें १५१ इत्यादिक अवधार, वह गुण जाणी जमाली नं सार, दीक्षा दीघी फुन जिनेंद्र जगतार, प्रभु । दीपती ॥ १५२. *एह दोसौ ने चवदमी ढाल, नवसौ तेतीसमों अंक निहाल । भिक्षु भारीमाल ऋषिराम प्रसाद, 'जय जय' संपति सुखअहलाद ॥ नवमार्यः || ६|३३|| *लय : खिण गई रे, लाखीणी रे मेरी खिण Jain Education International १३६. जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे १३७. रसातिए देवकिपिसिएम देवे देवकिम्मत्ताए उपवन्ने ? १३८. गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उपडीए १३६. आयरियउवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकारए जाव (सं० पा० ) वुप्पाएमाणे १४०. बहु वासाई सामापरिवार पाउण अनुमासि याए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता १४१. तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा तक जाय (सं० पा०) उववन्ने । ( श० ६।२४३ ) १४२. जमाली णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएवं जाव (सं० पा०) कहि उबवहिति ? १४३. गोयमा ! चत्तारि पंच तिरिक्खजोणिय मणुस्सदेवभवगणाई ससारं अणुपरिपट्टित्ता तो पच्छा सिज्झिहिति १४४. जाव (सं० पा० ) अंतं काहिति । (श० ६।२४४ ) सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ( ० २२४४) १४६. अथ भगवता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वादमुं तद्यतिकरं जानताऽपि ( वृ० प० ४९० ) १४७ किमिति प्राजितोऽसौ ? इति उच्यते । ( वृ० प० ४६० ) १४०. अश्यम्भाविभावानां महानुभावैरपि प्रायोि माइत्यमेव गुणविशेषदर्शनाद् । १४. लक्ष हि भवन्तो प्रवर्त्तन्त इति For Private & Personal Use Only ( वृ० प० ४९० ) न निष्प्रयोजनं क्रियासु ( वृ० प० ४९० ) श० ६, उ०३३, ढा० २१५ २६६ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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