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२६. जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा
२८. बहूहिं खुज्जाहि, चिलातियाहिं जाव
२६. *जाव तोल हलका मोल भारी, एहवा आभरण अधिक उदारी।
अलंकृत तनु सिणगारी॥ २७. एहवी देवानंदा मन हरणी, अनुपम तनु सोवन वरणी।
कीधी पूर्व भव में करणी ।। २८. दास्यां कुब्जका साथ घणेरी, बलि चिलात देशज केरी।
जाव शब्द थी एह अनेरी॥ २६. वामणी ह्रस्व तनु नी कहिये, वडभी' हियो ऊंचो लहिये ।
बब्बरी बब्बर देश नी गहिये। ३०. बउसिया देश नी उपनी, ऋषिगणिका देश नी निपनीं।
वासीगणिका देश नी जन्नी ।। ३१. उपनी योनिका देश केरी, पल्हवित देश नी पिण चेरी।
देश ल्हासिया तणी घणेरी॥ ३२. देश लउसिया नी प्रकाशी, आरब दमिल सिंहल देश वासी।
पुलिदि पक्कण नी गुणरासी॥ ३३. बहिल मुरुड देश नी जाणी, सब्बर पारसी देश नी स्याणी।
बहुविध जनपद थी आणी ।। ३४. तेहवा देश तणी अपेक्षायो, अन्य देश विष पिण थायो ।
तिके कीधी एकठी ताह्यो। ३५. निज देश विषे ते जाणी, वस्त्र पहिरै जेम पिछाणी॥
ग्रहण कियो है वेष सयाणी ।। ३६ इंगित चेष्टा नेत्रादि, चितित पर चितव्यू साधि ।
एतो जाण धर अहलादि ।। ३७. प्रार्थित परवांछा जाणंद, कुशल डाही विनीत अमंद ।
चेटिका चक्रवालज वृंद ।।
२६. 'वामणियाहिं' ह्रस्वशरीराभिः 'वडहिया हिं' मडह
कोष्ठाभिः 'बब्बरियाहि (वृ०प० ४६०) ३०. पओसियाहिं' ईसिगणियाहि वासगणियाहिं
(वृ० प० ४६०) ३१. जोण्हियाहिं पल्हवियाहिं ल्हासियाहिं
(वृ० प० ४६०) ३२. लउसियाहि आरबीहिं दमिलाहि सिंहलीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं
(वृ० प० ४६०) ३३,३४. बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहि णाणादेस
विदेसपरिपिडियाहिं' नानादेशेभ्यो-बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे-तद्देशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता या:
(वृ० प० ४६०) ३५. सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं (वृ० प० ४६०)
३५. वरिसधर ते नपुंसक कीधा, स्थविर प्रयोजने सुप्रसिधा।
जावै अंतेउर में सीधा ।। ३६. कंचइज पोलिया गहिये, महतरग तणो अर्थ कहिये ।
अंतेउर नां कार्य चितवियै ।। ४०. एतला नां वद थी अमंदा, परवरी थकी देवानंदा।
अंतेउर थी नीकली आनंदा ।।
३६,३७. 'इंगियचितियपत्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन
नयनादिचेष्टया चिन्तितं च परेण प्राथितं च--- अभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः 'कुसलाहि विणीयाहिं' युक्ता इति गम्यते 'चेडियाचक्कवाल'
(वृ० ५० ४६०) ३८-४०. वरिसधर-थेरकंचुइज्ज-महत्तरकवंदपरिक्खित्ता'
वर्षधराणां-वधितककरणेन नपुंसकीकृतानामन्तः पुरमहल्लकानां 'थेरकंचुइज्ज' त्ति स्थविरकञ्चुकिना -अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च - अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वन्देन परिक्षिप्ता
(वृ० ५० ४६०)
सोरठा ४१. वली सर्व ए जाण, अन्य वाचना नै विषे।
छै साक्षात पिछाण, एहवं आख्यं वृत्ति में। ४२. *जिहां बाहिरली उवट्ठाण साला, जिहां धार्मिक यान निहाला।
तिहां आवी छ गुणमाला ।। *लय : राणी भाखै सुण रे सूड़ा २. जिसका आगे का भाग निकला हुआ हो।
४१. इदं च सर्व वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति ।
(वृ०प० ४६०) ४२. निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला, जेणेव
धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, १. अंगसुत्ताणि में वाचनान्तर का पाठ उद्धृत किया है,
वहां 'वउसियाहि' पाठ है। जोड़ इसी पाठ के आधार पर की हुई प्रतीत होती है। पर वृत्ति में इस स्थान पर 'पओसियाहिं' पाठ है। इस सन्दर्भ में समग्र पाठ वृत्ति से लिया गया है। इसलिए यहां भी उसे ही उद्धृत किया जा रहा है।
२३० भगवती-जोड़
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