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________________ * पुण्य प्यारी गुणग्यो देवानंदा अधिकार (ध्रुपदं) ९. करी स्नान वलिकर्म सार, कीधा कोतक विविध प्रकार । मसी तिलकादिक सुविचार रे ।। १०. मंगलीक ने अप्रसाधि ग्रह सरसव ने बोवादि । ११. वलि अन्य कीधो ते । टालवाज अशुभ सुपनादि ॥ कहिये, वर नेउर चरणे लहिये । मणी मेखला कटि-तट महिये ।। उचित युक्त करि शोभायो । देखत नेत्र हरायो । मुद्रिका अंगुलियां सोहे जन देखत ही मन मोहै ॥ १४. विचित्र मणिमय जाणी, एकावली कांति वखाणी । तिसुं देवानंदा दीवाणी ॥ १५. कंठ सूत्र अधिक श्री कारं वलि उर रह्या आभरण सारं । रूदिगम्ब कणा वृत्तिकार ॥ १६. ग्रैवेयक प्रसिद्ध कहियै, ए तो आभरण कंठ नां लहियै । तिणसूं देवानंदा गहगहिये || १७. कटिसूत्रेण नाना प्रकार मणि रत्नां नां भूषण सार तिणसूं शोभित अंग उदार ।। १८ चीन अंशुक नाम ए दोय, वस्त्र मध्ये प्रवर ते होय । तिके पहिया छै अवलोय || वल्कल थी नीपनो जान । तिको दुफल वस्त्र पहिचान || ऊपर ओण ते विशाल । मन हरये नयण निहाल ॥ सुगंध फूल करी सुविशेष तिण सूं वींट्या शिर नां केश ।। ११. दुकूल वृक्ष तणी सुविधान, २०. ते पण वस्त्र पणुं सुखमाल, २१. सर्व ऋतु नां नीपना अशेष २२. वर चंदन चरचित चंगी, निलाट विषेज सुरंगी । आभरण भूषित अंगी ॥ १२. हार करिके रचित हिय छायो, तम् १३. कडे करिकै अधिक कांति होवे २३. कृष्णागर सुगंध अशेष धूपे धूपित सुविशेष | श्री देवी सरिखो वेष' ।। २४. काया चलक-चलक चलकंती, प्रभा भलक-भलक भलकंती | जाणे मुलक-मुलक मुलकंती ॥ सोरठा २५. एह बी हिव सोय, थकी प्रकृत छै जे वाचना । कहिये थे अबलोय एह आस्यो वृत्ति में ॥ , * १. राणी भाखे सुण रे सूड़ा १. प्रस्तुत ढाल की गाथा ७ से २३ तक की जोड़ वाचनान्तर के आधार पर की गई है, जो अंगसुत्ताणि पृष्ठ ४३४ दि० ६ से यहां उद्धत किया हैं । Jain Education International ६,१०. कयबलिकम्मा कय कोउय-मंगल-पायच्छित्ता, तंत्र कौतुकानि मणीतिलकादीनि सिद्धार्थंकर्वादीनि मङ्गलानि - ( वृ० प० ४५९) ११. किते (व) ] - वरपादपसउर मणिमेहना १२. हाररचित - उचियउचितैः युक्तैः १३. कडग-खुड्डाग 'खुड्डाग' त्ति अङ्गुलीयकैश्च १४. एकावलीविचित्रमणिकमय्या १५.१६. कंत उत्ववेज्ज कष्टसूत्रेण च उरथेन च ( वृ० प० ४५९ ) ( वृ० प० ४५९) ( वृ० प० ४५९ ) गम्येन १७. सोभित्त-वाणामणि- रणभूसणविराइयंगी, १८. पीचरपरिहिया, ( वृ० प० ४५९) १६,२०. दुगुल्ल सुकुमाल उत्तरिज्जा, दुकूलो - वृक्षविशेषस्तद्वत्काज्जातं दुकूलं वस्त्रविशेषस्तत् सुकुमारमुत्तरीयम् उपरिकायाच्छादनं ( वृ० प० ४६० ) यस्याः सा तथा २१. सोयसुरभिकुसुमवरिपरिया, २५. इतः प्रकृतयाचनानुथिय For Private & Personal Use Only २२. वरबंदणवंदिता वराभरणभूतिंगी, वरचन्दनं वन्दितं निवे २३.या, सिरिसमाणसा श्री देवता तथा समाननेपा - ( वृ० प०४६०) ( वृ० प० ४६० ) ( वृ० प० ४६० ) ०२०२२ १९६ २२६ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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