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३८. कोत्तिया सूवै महि विषे, फुन यज्ञकारक जण्णई । फुन जेह श्रद्धावंत तेहनें, कह्या प्रभुजी सड्ढई ॥ ३९. उपगरण लीये जे रहे, ते वालइ पहिचानिये। जे श्रमण कूंडी प्रति प्र ते चुंबउडा जाणिये ॥ ४०. फल भोगवै ते दंतुखलिया, फुन उम्मजग इह परं । इक वार जल में पेसने तत्काल ही जे नीसरै ॥ ४१. बहु वार जल में पेस निकलै, कह्या तेह समज्जगा । फुन स्नान अर्थे जल विषे, खिण रहै तेह निमज्जगा ||
४२. फुन प्रथम मट्टी प्रमुख घस, तनु-अंग क्षालण जे करें। इह रीत स्नान करंज तेहनें, संपखालणगा वरं ॥ ४३. गंगा तणें दक्षिण तटे वसनार दक्षिणकूलगा । वास्तव्य जे उत्तर तटे कहिवाय उत्तरकूलगा ।। ४४. कुन संघमा करें भोजन, आप तमु जीमाय ने
नहि आय तो फुन तेह जीर्म संख प्रति सुबजाय ने ॥ ४५. जे नदी तट ऊभा रही में शब्द कर जी सही ।
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ते कूलधमगा का पुन मृगलुब्धगा जु प्रसिद्ध ही ॥ ४६. जे गज हणी तिणहीज करि बहु काल भोजन आचरं । ते हस्तितापस' आखिया, पाखंड वृत्ति समाचरं ॥ ४७. फुन स्नान अणकीथे न जीमे कठिन गाज बेहनां । बुढा कहे स्नाने करी, पांदुरा गात्रज तेन ॥
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या कि हि ते जनामिकणगावभूष' ति पाठ है तिहां जननां अभिषेके करी ने कठिन गात्र थयो है जेहनों, एहवू का छ ।
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४८. जल हि स्थानक वास जेहनुं, अम्बुवासिज दाखिया कुन पवन जेह स्थान रहिये वायुवासी भाविया ॥ ४९. जल विषे बुडा रहे, जलवासिणों तापस कह्या पुन वेलनेज समीप वसवं वेलवासी जे ह्या ।।
है, उसे अंगसुत्ताणि पृ. ४१४ के पाद टिप्पण (१२) में ज्यों का त्यों ले लिया गया है। उसके बाद औपपातिक सूत्र (१४) का पाठ भी दिया गया है। १. 'होत्तिया' से लेकर हत्थितावसा' तक अंगसुत्ताणि के पाद-टिप्पण और भगवती की वृत्ति का पाठ समान है। इसलिए जोड़ के सामने वृत्ति का पाठ उद्धृत किया गया है । 'हत्थितावसा' के बाद वृत्ति में कुछ शब्द अधिक हैं, और कुछ आगे पिछे हैं । इसका कारण यह है कि वृत्ति में औपपातिक सूत्र वाला पाठ लिया गया है । जब कि जयाचार्य ने भगवती के मूल आदर्श से प्राप्त पाठ के अनुसार जोड़ की है । व्यवस्थित पाठ उपलब्ध न होने के कारण तथा यत्र तत्र वृत्तिगत व्याख्या के आधार पर जोड़ होने के कारण जोड़ के सामने कहीं वृत्ति को, कहीं अंगसुत्ताणि और कहीं दोनों को उद्धृत किया गया है । २. वेलवास
और जलवासियो पाठ वृत्ति में है, बंगमुत्ताथि' में नहीं है जोड़ में पाठ का व्यत्यय है ।
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३८. 'कोत्तिय' त्ति भूमिशायिन: 'जन्नइ' त्ति यज्ञयाजिनः 'सड्ढइ' त्ति श्राद्धाः (१० १० ५१९) ३६. 'वात' ति गृहीतभाष्टा: 'उ' ति कुण्डिका(२०१० ५१९) उम्मजय' ति
श्रमणाः
४०. दंतुलित फलभोजिन उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति ( वृ० प० ५१९) ४१. 'संमज्जग' त्ति उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जग' त्ति स्नानार्थं निमग्ना एवं ये क्षणं तिष्ठन्ति । ( वृ० प० ५१६ ) ४२. संपात मृत्तिकादिषणपूर्वकालयन्ति । ( वृ० प० ५११) ४३. 'दक्षिणकूलग' त्ति गंगाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूल' ति उक्तविपरीताः । ( वृ० प० ५१६ ) ४४ 'संखधमग' त्ति शंखं ध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति (बु० १० ५१२) ४५. 'कूलधमग' त्ति ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते 'मियलुद्धय' त्ति प्रतीता एव (२० ५० ५१९) ४६. हरितावसति के हस्तिन मारवित्वा तेनैव का भोजनतो यापयन्ति । ( वृ० प० ५१६ ) ४७. ' जलाभिसेयकिढिणगाय' त्ति येऽस्नात्वा न भुंजते स्नानाद वा पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः
( वृ० प० ५१६ ) बा०जिताभियकणिमायभूयति दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः प्राप्ता ये ते तथा
( ० ५० ५१९)
४८. अंबुवासिणो वाउवासिणो
४९. 'सवासिणी' ति समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जनवासिणो' त्ति ये जलनिमग्ना एवासते ।
(१० ५० ५१९)
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०११ ४०१, डा० २२७ ४०१
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