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________________ १५२. शक्र त सुविचारो पूठे पुढे चाले घर प्यारो । हिवे आभियोगिक अधिकारी ते सांभलज्यो विस्तारो ॥ तणां निवारो आभियोगिक सुरसुरी सारो केइ कलश हाथ में ले जा पाय केइ ।। १५२. ' १५४. हर्ष संतोष पामंता, शक्र पूठै पूठै चालता । इम देव देवी परिवारो, वह वाजन ने झिणकारी ॥ १५५. हि सिद्धायतन सुविशेषो पूर्व वारणं कोध प्रवेशो जिहां वे देवच्छंद गंभारी, तिहां जिन प्रतिमा अवधारो ॥ १५६. तिहां आवै आवा नैं तामो देखो जिन प्रतिमा नैं परणामो । पूर्व लोम हस्त करताय, सुगंध जल करिने न्हवराय ॥ १४७. सरस गोशीर्ष चंदन करेह, गात्र लीप लीपी ने जेह । पछे जिन - प्रतिमा ताय, देवदृष्य महामूल्य पहिराय ।। नैं १८. फूल चढावे तिण कालो, चढावे फूलां नी मालो । गंध कपूरादि चढाय, वलि वर्ण चढावै ताय ।। १५६. चूर्ण चढावे चंगो, वलि वस्त्र चढावे सुरंगो । आभरण गहणा अमंद, ओ तो पहावे शक्र सुदि । १६०. नीचली नीचली भूम थी ताह्यो, ऊपर चंदवा लग अधिकायो । बांधे वर्तुल व पुण्यमाला वारू बंदायमान विशाला ॥ १६१. पछे पंच वर्ग बोकार, मूकै पुरुष-पुंज उपचार | तिण ऊपर दियो दृष्टन, स्त्री नां शिर केश ग्रहों नें मुकंत ॥ दूहा १६२. नर स्त्री नां शिर केश ग्रह चुंबन कामवसेण । मूक्या पसरं चिहुं दिशे, तिम पुष्कवृंद करेण ॥ १६३. * जिन प्रतिमा नैं आगे, निर्मल श्वेत रूपामय सागै । अच्छरस कहितां ताह्यो, कांइ अतिही निर्मल करिवायो ॥ *लय : सुण चिरताली थारा लक्षण Jain Education International १५२. पिट्ठतो-पितो समणुगच्छेति । ( गय० सू० २०९) १५३. तए णं अभिओगिया देवा य देवीओ य अप्पेगतिया कलसहत्थगया वंदण जाव अप्पेगतिया धूवकडच्छुयहत्थगया ( रया० सू० २९० ) १२४. हतो-पितोसमच्छति। (राय० सू० २१० ) तए... देवेहि य देवीहि यसद्धि संपरिवुडे णातियरवेणं (राम० सू० २९१) १५५. जेणेव सिद्धायतणे तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता सिद्धायतणं पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसति अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमाओ (शय० सू० २९१) १५६. तेणेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता जिणपडिमाण आलोए पणामं करेति, करेत्ता लोमहत्थगं गिण्हति गिरिता पिहिमाणं लोमहत्यएवं मज मज्जित्ता जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाएइ ( राय० सू० २९१ ) १५७. सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिप, अणुलिपत्ता जिगपदिमाणं अहवाई देव नियंसेs, नियंसेत्ता (राय० ० २९१) १५०,१५६. पुष्पा मलावष्णारुण चुष्णारहणं गंधारुर्ण आभरणारहण करे ( राम० सू० २११ ) १६०. आसत्तोसत्त-विउल-वट्ट वग्धारिय-मल्ल-दाम-कलावं करेह, (राय० सू० २११) १६१करभट्ट-विष्यमुक्के दसद्धवणे कुसुमेणं पुप्फपुं जोवयारकलियं करेइ ( राय० सू० २९१ ) १६३,१६४. जिण डिमाणं पुरतो अच्छेहि सव्हेहि' रययाएहि अच्छा दुहि अमंगले आह १. रावसे ( ० २९१ ) में पुष्प माला, वर्ण, चूर्ण, गंध और आभरण यह क्रम है। जोड़ की गाथा १५८,१५६ में गंध को वर्ण से पहले लिया गया है और चूर्ण के बाद वस्त्र का ग्रहण किया गया है । यह अन्तर पाठभेद के कारण हो सकता है। २. सेएहि के स्थान पर सहेहि पाठ है। सेएहिं को पाठांतर में लिया है। For Private & Personal Use Only श० १०, उ० ६, ढाल २२४ ३५६ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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