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________________ । १६४. एहवा तंदुल करेह, अष्ट अष्ट मंगल आलिखेह | स्वस्तिक साथियो जाणी, जाव दर्पण आरिसो पिछाणी || १६. तदनंतर हतीक, रत्न चंद्रप्रभ बच्चनय सधीक । वली वे रत्न रे मांय, निर्मल दंड कटुच्छा नों दीपाय || १६६. सुवर्ण मणि रत्न तेह, भांत चित्रित दंड विषेह । हिवे धूप नी जाति सुजान, कृष्णागर अधिक प्रधान ॥ १६०. कंद चीट कहाव, तुरुक्क कहितां सेल्हा रस ताय । मघमघायमान ते तणो १६८. उत्तम गंध जे धूप, करेह, तिको व्याप्त छे धूप नीं वाटी सोहंतो गंध प्रति विशेष १६६ रन बंडू मांय, कछो यत्न करी ग्रही धूप 'दियो जिनवर नैं जेह, कहिये स्थापना जिनवर एह || १७०. नवा काव्य एकसी अट्ठ छंद-दोष रहित सुघट्ट | सार अर्थ करीनं सहीत, तिके पुनरुक्त दोष रहीत ॥ १७१. मोटां छंद जे पद नां बंध, देव लब्धि प्रभाव सुसंध । एहवा काव्य करीनें स्तवेह, राज रीत लोकिक मग एह ॥ १७२. सात आठ पग पाछो उसरी नै डाव ढींचण ऊंची करीनें । गोडो जीमणो भूमितल धार मही लगावे शिर बिग चार ।। अनूप ॥ अधिकेह | मुकतो ॥ ताय । १७३. मस्तक कांयक ऊंचो करेह, कांयक ऊंचो करीनें जेह | शिर आवर्त करी बिहुं हाथ, अंजली करी वर्द सुरनाथ ॥ १७४. नमो अरिहंताणं जाय संपत्ताणं लग जाणं । वां नमस्कार करि सोय, ए पिण द्रव्य मंगलीक सुजोय ॥ १७५. जिहां सिद्धायतन नों जाणी, बहु मझ देश भाग पिछाणी । तिहां आवै आवी नें, मोरपिच्छ नीं पूंजणी ग्रही नैं ।। १७६. सिद्धायतन न जे बहु मध्य देश भाग प्रतेह | मयूरपिच्छ करी पूजेह, दिव्य उदक-पारा सींचेह' ॥ १७७. आला गोशीर्ष चंदन करेह, पंचांगुलि करि हाथा देह । मंडल प्रति आलिये ए पि राज नी रीत करेह ॥ १७८. पछे केश में दृष्टांतेह जाव पुण विखेरेह । फूल-फगर सहित करे, धूप दिये देई ने तेह ॥ १७९. जिहां सिद्धायतन नो विचार, दक्षिण नों द्वार । तिहां आवै आवी नें, मयूर पिच्छ नीं पूंजणी ग्रही नें ॥ Jain Education International १. इन गाथाओं में पाठ की तुलना में जोड़ अधिक है। जिस पाठ के आधार पर यह अतिरिक्त जोड़ की गई है वह 'रायपसेणइयं' में पाठान्तर के रूप में स्वीकृत है । जयाचार्य के प्राप्त आदर्श में यह पाठ मूल में रहा होगा । २. प्रकर समूह ३६० भगवती-जोड़ तं जहा- सोत्थियं जाव (सं० पा० ) दप्पणं । ( राय० सू० २६१ ) अच्छो रसोदेषु अतिनिर्मला इत्यर्थः (राय० ० प० २५५) १६५. तयानंतरं च णं चंदप्पभ - वइर वे रुलिय- विमलदंड (राव० सू० २९२) १६६. कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागरुपवर (राय० सू० २९२) १६७. कुंवरुन धूमघमत (राय० सू० २१२) १६८. गंधुत्तमाणुविद्ध' च धूवर्वाट्ट विणिम्यं तं १६. (राय० सू० २९२ ) पहिय पत्ते धूर्व दालन जिणवराणं (राय० सू० २८२) १७०,१७१. असगंधत्ते यह अपुरुतेहि महावितेहि संधुवाइ (राय० सू० २१२) विशुद्ध-निर्मतो लक्षणदोषरहितः बर्चयुक्त:अर्थसारं पुनरुक्तैर्महावृत्तैः, तथाविधदेवलब्धिप्रभावः (राम० वृ० प० २५५ ) १७२. सत्तट्ठपयाई पच्चीसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता ( पा० टि० १२) वामं जाणुं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणं धरणीतलंस निदुतिस्तो मुद्वाणं धरणितसि निवाडेड ( राय० सू० २६२ ) १७३. ईसि पन्चुम्बन पमित्ता करमलपरिग्नहि सिरसावत्त' मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी(राय० सू० २६२ ) १७४. नमोत्थूण अरहंताणं संपत्ताणं वंदइ नमसइ (राय० सू० २९२ ) १७५,१७६. सावतपस्स बहुमन्सदेसभाए तेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दिव्वाए दगधाराए अब्भुक्खेइ (राय० सू० २२२) १७७. सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलं दलयइ, मंडलगं आलिहइ ( पा० टि० २ ) (राप० सू० २९३) १७. कम्पग जाव (सं० पा० ) जोवयरकनिर्म करे करेशा धूर्व दलपद (राय० सू० २९३ ) सिद्धायणस्स वाहिणिले तेथे दारेउवागच्छति, उवागच्छित्ता लोमहत्यगं परामुसइ, परामुसित्ता (राय० सू० २९४) १७. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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