SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५. एवं जावत वरसई, वनस्पति रै मांय । समय-समय अनंता ऊपजे तिण सूं अंतर-रहित उपजाय ॥ १६. द्र माणिया, कहिवा नारक जेम । अंतर- सहित पिग अपने अंतर-रहित जाव पिण तेम ॥ सोरठा १७. जे ऊपनां छै तास, नीकलवो ते माटै सुविमास, नीकलवा १५. हे प्रभु! अंतर-सहित ते नीकले नारक जीव । अथवा निरंतर नीकले ? हिव जिन उत्तर कहीव ॥ १६. अंतर - सहित पिण नीकलै नीकलवा नों विरह जद थाय । अंतर-रहित पिण नीकलै, जद नीकलवा नों विरह नांय || २०. इम जाव थणियकुमार छै, हिवै पृथिवी नी पूछा वदीत । प्रभु ! पृथिवीकाइया नीकले अंतर-सहित के अंतर-रहीत ? २१. जिन कहे अंतर सहित नहीं, समय-समय असंख्यात । नीकले है तिण कारणे, निरंतर नीकलबू आख्यात | २२. इम जाव वणस्स इकाइया, वनस्पति में बेह समय-समय अनंता ही मरे, तिण सुं अंतर-रहित निकलेह । २३. हे प्रभु ! अंतर- सहित ते, बेइंदिया निकलंत । कै अंतर-रहित बेइंदिया, नीकलवूं तसु हुत ? २४. जिन कहै कहै अंतर-सहित पिण, बेदिया निकलत 2 - ढाल १७६ Jain Education International वलि नों अंतर-रहित पिण नीकलै, इम जाव व्यंतर उब्वट्टंत ॥ २५. अंतर - सहित प्रभु ! जोतिषि चवै तिहां थी सोय । अथवा निरंतर ते चवै ? हिव जिन उत्तर जोय ॥ २६. अंतर सहित पिन जोतिषि चवै अच्छे तहतीक अंतर-रहित पिण चर्व अ एवं ईमानीक || २७. नवम बत्तीस नुं देश ए. इक सौ पचितरमी दाल। भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी, 'जय-जश' हरष विशाल ॥ *लय : गुणधारी सुखकारा हरि सुत वंदिये ३६ भगवती-जोड़ हुवै प्रश्न अछे । हिव ॥ इहा १. पूर्व नीकलयूं कह्य नोकलिया नैं ताय । अछे प्रवेशण अन्य गति, हि प्रवेशण आय ॥ प्रवेशण कतिविधे ? अन्य गति थकीज जेह नीकल अन्य गति ने विषे जाय प्रवेशण तेह ॥ २. प्रभु १५. एवं जाव वणस्स इकाइया । १६. बेइं दिया जाव वैमाणिया एते जहा नेरइया । (TO £152) १७. उत्पन्नानां च सतामुदर्तनाभवतीत्यतस्तां निरुपयनाह ( २०१० ४३२) १८. संतरं मंते । नेरवा उच्चति ? निरंतर नेरइया उब्वट्टंति ? १६. गंगेया ! संतरं पि नेरइया उब्वट्टंति, निरंतरं पि नेरइया उब्वट्टेति । २०. एवं जाव थणियकुमारा । ( श० ६८२ ) नंतर मते विनकाइया उति ? पुच्छा। २१- या तो संतरं काय उति निरंतर विकाइया उबट्टेति । २२. एवं जाव वणस्सइकाइया-नो संतरं निरंतर उति । (08 (157) २३. संतरं ते बेदिया उष्यति ? निरंतर बेइंदिया उम्मत? २४. गंगेया ! संतरं पि बेइंदिया उब्वदृति, निरंतरं पि इंदिया उम्पति एवं जाय बाणमंतरा] (४०२८४) २५. संतरं भंते! जोइसिया चयंति ? - पुच्छा । २६. गंगेया ! संतरं पि जोइसिया चयंति, निरंतरं पि जोगिया भवंति एवं बेमानिया विश० २५) १. उत्तानां च केचिद्गस्यन्तरे प्रवेशनं भवतीत्यतस्तनिरूपणावाह ( वृ०प० ४३६) २. कतिविहे णं भंते! पवेसण पण्यते ? 'पवेसण ति गत्यन्तरात्तस्यविजातीयगत त्ति जीवस्य प्रवेशनं ( वृ० प० ४४२ ) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy