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सोरठा ३३. जाव शब्द में जाण, हसिवा भणिवा में चतुर ।
फुन चेष्टित पहिछाण, विलास नेत्र विकार जे ।। ३४. भणिवू मांहोमांय. संलाप कहिये तेहनें ।
उल्लाप जे कहिवाय, वक्रोक्ति वर्णन भणी।।
३५. *आसन स्थान गमन वली कर 5 नेत्र विकार ।
तिणे करीनै सहीत ही, तेह विलास विचार ।।
३६. सुन्दर थण कह यूं सूत्र में, इण वच करि सुप्रयोग्य ।
जघन्य वदन कर चरण ही, लावण्य वंछवा योग्य ।। ३७. रूप आकार कहीजिय, तरुणपणो ते योवन्न । ___ गुण ते मृदु स्वर प्रमुख ही, तिण करि सहित सुजन्न ।। ३८. बरफ रूपो ने कुमोदनी, मचकुन्द चंद सरीस ।
कोरंट तरु नां फलां तणी, माला सहीत जगीस ।।
३३. हसिय-भणिय-चेट्ठिय-विलास
इह च विलासो नेत्रविकारः (वृ० प० ४७८) ३४. संलाब-निउण' जुत्तोवयारकुसला संलापो-मिथोभाषा उल्लापस्तु काकुवर्णनं
(वृ०प० ४७८) ३५. स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ।
(वृ०प०४७८) ३६. सुंदरथण-जघण-वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण
लावण्यं चेह स्पृहणीयता (वृ० प० ४७८) ३७. रूपं-आकृति:यौवनं- तारुण्यं गुणा मृदुस्वरत्वादयः
(वृ०प० ४७८) ३८. हिम-रयय-कुमुद-कुंदेंदुप्पगासं सकोरेंटमल्लदामं
सकोरेण्टकानि-कोरण्टपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदा
मानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा (वृ०प० ४७८) ३६. धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं 'ओधरेमाणी-ओधरेमाणी चिट्ठति ।
(श० ६।१६५) ४०,४१ तए णं तस्स जमालिस्स (खत्तियकुमारस्स ?)
उभओ पासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागार जाव (सं० पा०) कलियाओ
३६. एहवा धवल जे छत्र ने, ग्रहण करी लीला सहीत ।
शिर ऊपर धरती छती, तिष्ठे ते रमण सुरीत ।। ४०. जमाली क्षत्रियकुमार ने, उभय पास तिहवार ।
तरुणी उभय सुप्रधान ही, शृंगार रस नो आगार॥ ४१ जाव यौवन गुण सहीत ही, उभय चामर ग्रहि हाथ ।
तेह चामर छै केहवा, सांभलजो अवदात ॥ ४२. नाना मणी कनक रत्न में, निर्मल मोटा योग्य ।
उज्जल तपाया सोना तणो, विचित्र दंड आरोग्य ।।
४२. नाणामणि-कणग - रयण-विमलमहरिहतवणिज्जुज्जल
विचित्तदंडाओ
सोरठा ४३. कनक तपनीय मांय, स्य॒ विशेष इहां आखियो।
कनक पीत कहिवाय, रक्त वर्ण तपनीय जे ।। ४४. *देदीप्यमानज दीपतो, शंख अनै अंक रत्न ।
फूल मचकुन्द तणो वलि, जल नां फुहारा सुजन्न ।।
४३. अथात्र कनकतपनीययोः को विशेषः ? उच्यते, कनक
पीतं तपनीयं रक्तमिति (वृ० प० ४७८) ४४. चिल्लियाओ, संखक-कुंद-दगरय'चिल्लियाओ' त्ति दीप्यमाने "इह चांको रत्नविशेषः
(वृ०प०४७८) ४५,४६. अमय-महिय-फेणपुजसण्णिकासाओ धवलाओ
चामराओ गहाय सलील वीयमाणीओ-वीयमाणीओ चिट्ठति ।
(श०६।१६६)
४५. अमृत – मथियां थका, तेहनां जे फेण नी राशि ।
तेह सरीखा सफेत जे, चामर उभय विमासि ।। ४६. एहवा जे चामर ग्रही करी, लीला सहित बिहं पास।
वीजती वीजती रमणि बिहुँ, तिष्ठै छै आण हुलास ॥
*लय : ऐसी जोगणी री जोगमाया १. गाथा ३३ एवं ३४ के प्रतिपाद्य से सम्बन्धित दो पद्य सक्त के रूप में
प्राप्त होते हैंहावो मुखविकारः स्याद् भावस्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ।। अनुलापो मुहुर्भाषा प्रलापोऽनर्थक वचः । काक्वा वर्णनमुल्लापः संलापो भाषणं मिथः ॥
१. वृत्ति में इस स्थान पर संलावुल्लावनिउण पाठ है। २. इस गाथा में हिम शब्द से पाठ शुरू होता है । अंग
सुत्ताणि में इसमें पहले 'सरदब्भ' शब्द और है। यह शब्द कई आदर्शों में नहीं है । जयाचार्य को उपलब्ध आदर्श में भी यह नहीं रहा होगा, इसलिए इसकी जोड़ नहीं है।
२७० भगवती-जोड़
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