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ढाल : १६५
१. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ,
सद्दावेत्ता एवं वयासी२,३. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्त
जोइय-समखुरवालिहाण-समलिहियसिंगेहि, लघुकरणं- शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्ती यौगिको च-प्रशस्तयोगवन्तौ ......"बालिहाण' त्ति वालधाने -पुच्छौ
(वृ० प० ४५६)
१. ऋषभदत्त ब्राह्मण तदा, कोडिंबक नर तेड़।
कहै धार्मिक रथ त्यार करि, वृषभे-जुक्त समेर ।। २. *करो काज अति क्षिप्र, अहो देवानुप्रिया,
वृषभ बिहुँ अति चतुर, शीघ्र तसु गमन क्रिया । गमन क्रिया जी, तिण जुगत लिया, रथ संग बिहं ते जोतरिया, म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, अधिक तन मन रलिया। ३. अतिहि प्रशस्त पिछाण, जोगवंत रूप मिला। सम खुर नैं तसं पूंछ, वलि सम शृंग भला। सम शृंग भलाजी, अतिहि उजला, लक्षण गूणरूप अधिक निमला।
म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू गुण ज्ञाननिला। ४. कंठाभरण कलाप, जंबूनद स्वर्णमयी।
वेगादिक गुण करी, विशिष्ट प्रधान सही। प्रधान सही जी, अति कीति कही, जन जोवत ही आनंद लही।
म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, अधिक तन मन उमही ।। ५. रजत रूप्यमय घंट, झणण झिणकार बणे ।
सूत्र-रज्जु ते रासड़ि सूत नीं वृषभ तणै । वृषभ तण जी, अति दिप्तपणे, तस जातिवंत, लौकीक गिण ।
म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, हरष आनंद घण। ६. नाथ नासिका-रज्जु, प्रवर सुवरण मंडितं । सुवरण तेह प्रधान, तिणे करि अवग्रहितं । अवग्रहितं, जिन जश कहितं, पेखत जन मन आनंद लहितं ।
म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, परम प्रभु स्यू प्रीतं ।। ७. नील वर्ण जे उत्पल, कमल करी नीको। शिर-शेखर अभिराम, वलभ है जग जी' को। जग जी को जी, निरखण पीको, तसु आभरण करि रूपे अधिको।
म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू त्रिभुवन टीको । ८. वृषभ प्रधान युवान, लक्षणवंता आणी। ते रथ जोतर कह्यो, वृषभ वरणन माणी। वरणन माणी जी, हिव रथ जाणी, आगल वरणन कहियै ठाणी।
म्है तो जासां-जासां वंदन वीर, प्रभू केवल नाणी॥ ६. नानाविध नां न्हाल, प्रवर मणि रत्न तणी। घंटा अधिक रसाल, जाल चउफेर बणी। च उफेर बणी जी झिणकार घणी, मन प्रश्न हुवै तसु शब्द सुणी। म्हैं तो जासां-जासां वंदन वीर, धीर प्रभु तीर्थ धणी।।
४. जंबूणयामयकलावजुत्त-पतिविसिठे हिं,
जाम्बूनदमयौ-सुवर्णनिर्वृत्तौ यो कलापो.-कण्ठाभरणविशेषौ ताभ्यां युक्तौ प्रतिविशिष्टको च
प्रधानो जवादिभियौं तो (वृ०प० ४५६) ५,६. रययामयघंटा-सुत्तरज्जुय-पवरकंचणनत्थपग्गहोग्गहियएहि, रजतमय्यौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके–कार्पासिक-सूत्रदवरकमय्यौ वरकाञ्चनेप्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्ते-नासिकारज्जू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिनाऽवगृहीतको-बद्धौ यौ तौ
(वृ०प० ४५६)
७. नीलुप्पलकयामेलएहि, नीलोत्पल:-जलजविशेषः कृतो-विहितः 'आमेल' त्ति आपीड:-शेखरो ययोस्तौ (वृ० प० ४५६)
८. पवरगोणजुवाणएहिं
६. नाणामणिरयण-घंटियाजालपरिगयं,
*लय : धन-धन भिक्षु स्वाम
१. जीव
का ६, उ० ३३, ढाल १६५ २२७
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