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५६. मादल नैं आकार, मुखी कहिये मादलो।
५६. मुरवि कंठमुरविं फुन कंठमुखी सार, गेहणुं तेह गला तणुं ।
मुरवी-मुरजाकारमाभरणं कण्ठमुरवी-तदेव कण्ठासन्नतरावस्थान
(वृ०प०४७७) ५७. पालंब जे पहिछान. कहियै छै ए झंबणो।
५७. पालंब कुंडलाइं चूडामणि कुंडल पहिर्या कान, चूड़ामणि शिर सेहरो ।।
प्रालम्ब---झुम्बनक
(वृ० प० ४७७) ५८. वाचनांतरे वान, वर्णक ए आभरण न ।
५८. वाचनान्तरे त्वयमलंकारवर्णकः साक्षाल्लिखित एव सूत्र विषे सुविधान, दीसै छै साक्षात ए।
दृश्यत इति
(वृ० प० ४७७) ५६. *घणुं वखाण स्यूं कीजै, गंथिम सूत्रे करि माल गूंथीजै । ५६,६०. कि बहुणा? गंथिम-वेढिम-पूरिम-संघातिमेणं वेढिम वींटी नैं निपजाई माला, पुप्फ लंबूसकादि विशाला।।
इह ग्रन्थिम-ग्रंथननिर्वृत्तं सूत्रग्रथितमालादि वेष्टिमं ६०. पूरिम वंश शिलाकादी पोई, हिवै संधातिम अवलोई ।
-वेष्टितनिष्पन्नं पुष्पलम्बूसकादि पूरिमं-येन वंशमाहोमांहि नालिका करेह, नालिक गूंथी माला निपावेह ।।
शलाकामयपजरकादि कूर्चादि वा पूर्यते संघातिम तु यत्परस्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते
(वृ०प० ४७७) ६१. ए चिहं विध माला करि सोय, कल्प वृक्ष नी पर अवलोय।
६१. चउब्बिहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियकल्प वृक्ष फल करि शोभेह, तिम अलंकृत विभूषित करेह ।।
विभूसियं करेंति।
(श० ६।१६०) वा०-वाचनांतरे वली ए अधिक दीस छै---'दद्दरमलयसुगंधि- वा०-वाचनान्तरे पुनरिदमधिकं.""दृश्यते, तत्र च दरमलगंधिएहि गायाई भुकुंडेंति' त्ति। एहनों अर्थ-तिहां दद्दर अनं मलय नामैं बिहं ____ याभिधानपर्वतयोः सम्बन्धिनस्तदुद्भूतचन्दनादिद्रव्यजत्वेन पर्वत संबंधी तेह थकी ऊपनां चंदनादि द्रव्यजपणे करी जे सुगंध, तेहनी गंधिका ये सुगन्धयो गन्धिका-गन्धावासास्ते तथा, अन्ये त्वाहुःते वासना, तेणे करी। वली अनेरा आचार्य इम कहै छ–दईर ते वस्त्र करी दईर:-चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालिता बांध्यो कुंडिकादिक भाजन नों मुख, तेणे की गाल्यो अथवा तेहने विषे पचायो स्तत्र पक्वा वा ये 'मलय'त्ति मलयोद्भवत्वेन मलयजस्यजे । मलयगिरि नै विषे ऊपज करि मलयज----श्रीखंड संबंधी सुगंध-गंधिका श्रीखण्डस्य सम्बन्धिन: सुगन्धयो गन्धिका-गन्धास्ते तथा नीं वासना, तेणे करी गायाई-गात्र प्रत भुकुंडेंति अर्थात् उद्धृलै -लेपन करै। तैर्गात्राणि 'भुकुंडेंति' त्ति उद्भूलयन्ति (वृ० प० ४७७) ६२, ए दोयसौ दशमीं ढालो, तिण में आखी वात विशालो।
चरण लेवा जमाली थयो त्यारी, जनक करै महोत्सव भारी॥
ढाल : २११
१. जमाली क्षत्रिय कंवर, तास जनक तिहवार ।
कोटविक नर तेड़ने, इम कहै वच अवधार ।। २. देवानुप्रिय ! शीघ्र ही, अनेक सैकड़ा थंभ ।
तेह वि लीला करी, रही पूतल्यां रंभ ॥
वा०-वाचनांतरे वलि ए इम दीसै छै--अब्भुग्गय-सुकयवइरवेइय-तोरणबररइयलीलट्रियसालभंजियागं ति। तिहां अब्भुग्गय-ऊंची सुकय-सम्यक् *लय : सुण चिरताली थारा
१. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुबि
यपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी२. खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखभसयसण्णिविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं शालिभजिका:-पुत्रिकाविशेषाः वृ० ५० ४७७) वा०-वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते"तत्र चाभ्युद्गतेउच्छिते सुकृतबज्रवेदिकायाः सम्बन्धिान तोरणवरे रचिता १. अंगसुत्ताणि भाग २ श०६।१६० के टि०१० में 'विकच्छसुत्तगं' के स्थान पर वृत्ति के दो पाठान्तर उद्धृत किये हैं-वच्छसुत्तं और वेकच्छसुत्तं । जयाचार्य ने इस स्थान पर वच्छासुत्तं पाठ रखा है।
श० ६, उ० ३३, ढाल २१०, २११ २६७
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