SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८. जमाली क्षत्रियकुमार नैं इहविध जनक सुजाण । पीठे पुढे चालतो, वारू कर मंडाण ॥ ७६. ते जमाली क्षत्रियकुमार ने आगल हय चालत । तेह तुरंगम केहवा, अश्व वर मंत ॥ विषे सोरठा ८०. पाठांतर आख्यात, आसवारा अश्वारूढ सुजात, पुरुष तिके ८१. * बिहु पासे नागा गजा, पूठे रच अति शोभता, ८२. जमाली क्षत्रियकुंवर तदा, भृंगार कलश उपाड़ियो, ८३. उर्द्ध श्वेत छत्र छै जसु, श्वेत चामर बाल नां * लय : म्हारी सासूजी रे पांच पुत्र ₹ २७८ भगवती जोड़ जे । असवार आगल चलै ॥ ८४. सर्व ऋद्धि करि सहित छै, जावत वाजंत्र जान । ८५. । जावत 1 चालिया, तेह तणें शब्दे करी, अतिही शोभायजमान ॥ ५. तदनंतर बहु पालिया, लाठीग्राहा कुंतग्राह । पुस्तकग्राहका जाव योणग्रहा ताय । ८६. तदनंतर बहु चालिया, इकसी अठ मातंग | तुरंग एकसौ अठ वली, इकसौ अठ रथ चंग ॥ ८७. तदनंतर लकुट करे, इकसौ आठ विख्यात । इकसी अठ कुंत हाथ ।। आगल थी धर खंत | मोहे हरष अत्यंत ईश्वर तलवर मंत । आगल थी चालंत ॥ मध्योमध्य थइ न्हाल । चैत्य जिहां बहुसाल || मन इकसी अठ असी कर विषे ८८. बहुला नर पाळा वली, चालता चित चंप सूं ८१. तदनंतर बहु राजवी, जाव सार्थवाह प्रमुख ही, ९०. क्षत्रिय कुंडग्राम नगर नें, जिहां माणकुंडग्राम नगर छै, ६१. जिहां श्रमण भगवंत महावीर छै, तिणहिज स्थानक जोय । जावा नें उद्यत थया, संकल्प कीधो सोय ॥ १२. जमाली क्षत्रिय-सुत ने तदा, क्षत्रियकुंड ग्राम नगर विवेह मध्योमध्य थई करी, नीकलता नं जेह ॥ ९३. त्रिक आकारे संघाट नैं चउक्क मिलै पंथ च्यार । यावत महापंच ने विषे बहु धन अर्थी पार । २४. जिम उबवाई ने उववाई नैं विषे, अभिनंदत्ताय । तूं समृद्धि पाम चिरं जीवजे, स्तवना कर कहै वाय ॥ जाव Jain Education International ते गज मांहि प्रधान । रथ समुदाय सुजान ॥ सन्मुख जेहनें जोय । ग्रह्मोवींजणो सोय ॥ अतिहि वीजंते जेह | समूह करीनें तेह || ८. जमालि खत्तियकुमार गच्छ (०९/२०५) ७६. पं तस्स जमानिस पत्तियकुमारस पुरओ महं आसा आसवरा ८०. 'आसवरा' अश्वानां मध्ये वरा: 'आसवार' त्ति पाठान्तरं तत्र 'अश्ववारा:' अश्वारूढपुरुषाः ( वृ० प० ४८१ ) पिट्ठओ रहा, ( श० ६ २०६ ) (१० १०४८१) २. जमानीकुमारेभिरे ८१. उभओ पासि नागा नागवरा, रहगेली । 'रहसंमेल' तिरथसमुदायः परितालि ८३. ऊसवियसेतछत्ते पवीइयसेतचामरबालवीय णीए उच्छ्रितश्वेतच्छत्र: प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका ( वृ० १०४८१) ८४. सव्विड्ढीए जाव दुंदुहिणिग्घोसणादितरवेणं ८५. तदाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयग्गाहा जाव वीणग्गाहा अनुसयं गाणं अनुमपा ६. ८७. अट्टमयं रहाणं ८८. चहूणं पायत्ताणीणं पुरओ संपट्टियं ८६. तदाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवर जाव सत्थवाहपभियओ पुरओ संपट्टिया । १०. त्तियामं नगरं मम वैमेव माहमकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए ६१. जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेत्थ गमणाए । ( श० ९ / २०७ ) १२. एषं तस्स जमालिस प्रतियकुमारस्त बत्तिय कुंडग्गामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स ६३. सिंघाडग-तिय- चउक्क-चच्चर-चउम्मुह जाव हेसु वह अत्यविवा ४. जहा ओववाइए (सू० ६८) जाव अभिनंदंता' १. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है। इससे आगे की गाथाओं में संक्षिप्त पाठ में छोड़े गए सब शब्दों की जोड़ है । अंगसुत्ताणि भाग २ श. ६।२०८ में पाठ पूरा किया हुआ है। आगे की गाथाओं में वही पाठ उद्धृत किया गया है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy