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वेद द्वार (२२) ६४. हे प्रभु ! उत्पल जीवा, इत्थी पुरुष नपुंसक कहीवा ? __ जिन कहै इत्थी पुरुष न होय, नपुंसक इक बहु बच जोय ।।
वेद बंध द्वार (२३) ६५. प्रभु ! स्त्री-वेद बंधग जीवा, पुं नपंस बंधगा कहीवा? जिन कहै भांगा छब्बीस, सास-उस्सास जेम जगीस ।।
सन्नी असन्नी द्वार (२४) ६६. प्रभु ! सन्नी असन्नी ते जीवा? जिन कहै सन्नो न कहीवा। एक वचन असन्नी कहिवाय, बहु वच असन्नी पिण थाय ।।
इन्द्रिय द्वार (२५) ६७. प्रभ ! उत्पल जीव स्यूं कहिया, सइन्द्रिया के अणिदिया ? जिन कहै अणिदिया न तेह, सइंदिय इक बहु वचनेह ।।
अनुबंध द्वार (२६) ६८. प्रभ ! उत्पल जीव निहाल, रहै काल थी केतलो काल ? उत्तर-जघन्य अन्तर्मुहर्त थात, उत्कृष्ट काल असंख्यात ।।
संवेध द्वार (२७) ६६. प्रभु ! उत्पल जीव मरीन, पृथ्वी जीवपणे उपजी नैं ।
वलि उत्पलपणे उपजंत, कितो काल गतागत हुँत ?
७०. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करै भव दोय ।
एक पृथ्वी उत्पल भव बीजो, उत्कृष्ट असंख भव लीजो ।। ७१. हिवे काल थकी अवलोय, जघन्य अन्तर्मुहर्त दोय ।
उत्कृष्ट काल असंख्यात, इतो काल गतागत थात ।।
६४. ते णं भंते! जीवा कि इत्थिवेदगा? पुरिसवेदगा?
नपुंसगवेदगा? गोयमा ! नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसग
वेदए वा नपुंसगवेदगा वा। (श० १११२५) ६५. ते णं भंते ! जीवा कि इत्थिवेदबंधगा? पुरिसवेद
बंधगा? नपुंसगवेदबंधगा ?
गोयमा ! .........."छब्बीसं भंगा। (श० ११।२६) ६६. ते णं भंते ! जीवा कि सण्णी? असण्णी? गोयमा ! नो सण्णी, असण्णी वा असण्णिणो वा ।
(श० ११।२७) ६७. ते णं भंते ! जीवा कि सइंदिया ? अणिदिया? गोयमा ! णो अणिदिया, सइंदिए वा सइंदिया था।
(श० १११२८) ६८. से णं भंते ! उप्पलजीवेत्ति कालओ केवच्चिर होइ?
गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्ज कालं।
(श० ११।२६) ६६. से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे पुणरवि उप्पल-.
जीवेत्ति केवतियं काल सेवेज्जा ? केवतियं काल
गतिरागति करेज्जा? ७०. गोयमा ! भवादेसेणं जहणणं दो भवग्गहणाई,
उक्कोसेणं असंखेज्जाइं भवग्गहणाई। ७१. कालादेसेणं जहण्णेणं दो अतोमुहुत्ता, उक्कोसेण
असंखेज्जं कालं, एवतियं काल सेवेज्जा, एवतिय
कालं गतिरागति करेजा। (श० ११॥३०) वा०-'भवादेसेणं' ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः 'जहन्नेण
दो भवग्गहणाइ ति एकं पृथिवीकायित्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुष्यादिगति गच्छेदिति । कालादेसेण जहन्नेण दो अंतोमुहुत्त' ति पृथ्वीत्वेनान्तर्मुहत्तं पुनरुत्पलत्वेनान्तर्मुहूर्तमित्येवं कालादशेन जघन्यतो द्व अन्तर्मुहुर्ते इति ।
(वृ० ५० ५१३) ७२. से णं भंते ! उप्पलजीवे, आउजीवे ....."एवं चेव ।
एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियव्वे।
(श० ११॥३१) ७३. से णं भते ! उप्पलजीवे सेसवणस्साइजीवे से पूणरवि
उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा ? केवतियं
कालं गतिरागति करेज्जा? ७४. गोयमा ! भवादेसेणं जहण्णणं दो भवग्गहणाई
उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, ७५. कालादेसेणं जहणणं दो अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं अणंत
कालं तरुकालं, एवतियं काल सेवेज्जा, एवतियं कालं गतिरागति करेज्जा।
(श० ११॥३२)
वा०-भव आश्रयी जघन्य बे भव, उत्पल जीव मरी प्रथम भव पृथ्वीपणे, द्वितीय भव उत्पलपणे । तिवारै पछै मनुष्यादि गति प्रति गमन करें।
काल आश्रयी जघन्य बे अन्तर्मुहूर्त, ते किम ? उत्पल को जीव मरी एक पृथ्वीपणे अन्तर्मुहूर्त वली उत्पलपणे बीजो अन्तर्मुहूर्त, इम काल आश्रयी जघन्य थी दोय अन्तर्मुहूर्त ।
७२. प्रभु ! उत्पल जीव मरीनें, अपकायपणे उपजी में।
एवं चेव पृथ्वीवत भणवा, जाव वाउकाय लग गुणवा ॥
७३. प्रभ ! उत्पल जीव मरीने, वनस्पतिपणे उपजी नैं।
वलि उत्पलपणे उपजंत, कितो काल गतागत हंत?
७४. जिन कहै भव आश्री सोय, जघन्य थकी करै भव दोय ।
एवं वणस्सइ उत्पल बीजो, उत्कृष्ट अनंत भव लीजो।। ७५. हिवै काल थकी अवलोय, जघन्य अन्तर्महत दोय ।
उत्कृष्टो अनंतो काल, इतो काल गतागति न्हाल ।
३६४ भगवती-जोड़
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