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________________ २३. चउथ छठादिक हो जाव विचित्र प्रकार, बहु प्रतिपूर्ण हो द्वादश वर्ष उदार, चरण पर्याय निर्मल ध्यान ध्यावतो ।। २४. मास संलेखण हो साठ भक्त अणसण छेद, व्रत नां अतिचार आलोई पडिकमी । समाधि पाम्पो हो महामोटो मुनि संवेद काल नैं अवसर काल करी दमी ॥ २५. ऊर्ध्व चंद रवि हो जिम अम्मड़ आयात जाव ब्रह्मलोक नाम कल्प मही । तप करि करी आतम भावतो । मुनि ऊपनों हो देवपण सुविख्यात, प्रबल पुन्य करने बहु ऋद्धि नही ।। २६. तिहां के सुर नीं हो दश सागर नी आय, तिहां महाबल देव तणी पिण जाणिये । दश सागर नीं हो कहि उत्कृष्टि स्थिति प्राय, रूप प्रचारिका ते सुरमाणियं ॥ सोरठा २७. चउदश थकी पिण पूरवधार, जघन्य ऊपजवी सुविचार, किम ए ब्रह्म २८. उत्तर तेह्नों एह, चउदश पूरव किंचित ऊण पढेह, एहवूं न्याय २९. श्री जिन भा हो अहो सुदर्शन ! ताम दिव्य प्रधानज हो भोग जिके अभिराम, ३०. ते निश्करि हो देवलोक थी आम स्थिति दश सागर ब्रह्म कल्प मही । चवी अनंतर हो तूं अपनो इण ग्राम, ३१. तुम्हे सुदर्शन हो बाल भाव मूकाण, भोगवते थके विचरी नें सही ॥ देव आयु क्षय करिने तिहो । श्रेष्ठित कुल पुत्रपणे दहां ॥ कला कुशल वय योवन पावियो। तथारूप जे हो स्थविर संत पै जाण, का पादटिप्पण द्रष्टव्य है । २. आयुष्य *लय : विचरत विचरत हो आया सोजत १. Jain Education International संतके । अपनों ॥। ने विषे। जणाय छं ॥ केवल भाख्यो धर्म दिल आवियो || भाग २ ० ११।१६९ का पाद टिप्पण एवं जोवाइ सू० १४० २३. बहूह चत्थ जाव (सं०पा०) विचेत्तेहि तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ । २४. मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सद्वि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा २५. उद्धं चंदिम-सूरिय (सं० पा०) जहा अम्मटो जा भलए कप्पे देवताए उन् २६. तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं महब्बलस्स बि देवस्स दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । , २७, २८. इह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतोऽपि लान्तके उपपात इष्यते, 'जाति लगाओ उदगी जहन्न उचवाओ' त्ति वचनादेतस्य चतुर्दशपूर्वंधरस्यापि यद् ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत केनापि मनाग् विस्मरणादिना प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामपरिपूर्णत्वादिति संभावयन्तीति । ( वृ० प० ५४६ ) २६. से णं तुमं सुदंसणा ! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाई दिलाई भोगभोगाई जमाने विहरिता। ३०. भगाओ आउनणं भवरखणं ठिक्यएवं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्ठिकुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाए । (० ११।१६९) ३१. मेणा ! उम्मुवकबालभावेषं विष्यपरिणयमेते जोगगमपसे सहास्वाणं घेणं अंतियं केवलिपण्णत्ते धम्मे । For Private & Personal Use Only श० ११, उ० ११ ढाल २४५ ४६३ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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