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१६. हिव वर्णक अभिषेक न, इंद्र तणो अवधार ।
रायप्रश्रेणी सूत्र थी, कहियै इहां उदार ॥
*शक सर राजा, तिणरा चढता है सुजश दिवाजा ।।(ध्रुपदं) १७. तिण अवसर शक देविंद, ओ तो देवराजा सखकंद ।
ऊपजवा री सभा थी ताह्यो, ओ तो नीकल द्रह में न्हायो।।
करेइ,
१८. द्रह थी नीकल सरायो, अभिषेक सभा में आयो।
बेठो सिंहासण तेहो, मुख पूरव साहमो करेहो।।
१९. सामानिक परषद नां देवा, सेवग सर प्रति कहै स्वयमेवा।
इंद्राभिषेक थापवा काजो, स्नान करिवा पाणी आणो साजो।।
२०. सेवग सण हरष्या तिण वारो, वचन विनय सहित अंगीकारो।
आया ईशाणकण मझारो, वैक्रिय समद्घात दोय वारो॥
२१.एक सहस्र वलि आठो, ए तो सोना रा कलश सघाटो।
एक सहस्र आठ सुजाणी, एतो रूपा रा कलश पिछाणी ।। २२. एक सहस्र अठ मणि रत्नां नां, एक सहस्र अठ सूवर्णरूपा नां ।
एक सहस्र आठ सुवर्ण मणी नां, इमहिज रूपमणिमय सुचीना ।।
२३. सवर्ण-रूप-मणिमय सघाटो, ए तो कलश एक सहस्र आठो।
एक सहस्र ने आठ माटी नां, आठ सहस्र नैं चउसठ सविधाना ।। २४ इम भंगार आरिसा ने थालो, ए तो एक सहस्र ने आठ विशालो।
पात्री एक सहस्र ने आठो, इतरा सप्रतिष्ठिया वर घाटो। २५. चित्र-रत्न-करंडिया' विचारी, एतो एक सहस्र नै अष्ट उदारी।
सहस्र अठ फूल चंगेरी, इतरी फल-माल चंगेरी फेरी ।।
१७. तए णं से .......... "उववायसभाओ पुरथिमिल्लेणं दारेणं निग्गच्छइ, जेणेव हरए तेणेव ""जलमज्जणं
(राय सू० २७७) १८. हरयाओ......"पच्चोत्तरित्ता जेणेव अभिसेयसभा
तेणेव उवागच्छति .... 'सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सण्णिसण्णे ।
(राय० सू० २७७) १६. ""सामाणियपरिसोबवण्णगा देवा आभिओगिए देवे ___ सद्दावेंति, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खियामेव भो ! ....
.....इंदाभिसेयं उवट्ठवेह । (राय० सू० २७८) २०. तए णं ते आभिओगिआ देवा"एवं वुत्ता समाणा
हट्ट विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिमीभागं अवक्कमंति, वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणंति"दोच्चं पि वे उब्वियसमुग्धाएणं समोहण्णंति
(राय० सू० २७६) २१. ..."अट्रसहस्सं सोवण्णियाणं कलमाण, असहस्सं
रुप्पमयाणं कलसाणं (राय० सू० २७६) २२. अट्ठसहस्सं मणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्ण
रुप्पामयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्णमणिमयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं
(राय० सू० २७६) २३. अट्ठसहस्सं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं कलसाणं अट्ठसहस्स
भोमिज्जाणं कलसाणं (राय० सू० २७९) २४. एवं-भिंगाराणं आयंसाणं थालाणं पाईणं सुपतिद्वाणं
(राय० सू० २७६) २५. रयणकरंडगाणं (चित्ररत्न करण्डक (०प० २४२)
पूष्फचंगेरीणं मल्लचंगेरीणं (राय० सू० २७६) १. भगवती सूत्रकार ने शक देवेन्द्र के सौधर्मावतंसक
महाविमान के वर्णन प्रसंग (श० १०६E) में 'रायपसेणइयं' सूत्र का संकेत देते हुए लिखा है-'शक देवेन्द्र के विमान का प्रमाण, उपपात सभा, अभिषेक सभा, अलंकार सभा तथा अर्चनिका से लेकर आत्मरक्षक देवों तक पूरा प्रसंग सूर्याभ देव की तरह समझना चासिए। यह बात 'भगवती जोड़' (ढाल २२४, गा०१५ तक आ गई है। इसके बाद जयाचार्य ने जोड़ में राजप्रश्नीय सूत्र के अनुसार कहीं विस्तार के साथ और कहीं संक्षेप में पूरा वर्णन किया है। इसी ढाल की १७ वी गाथा से प्रारंभ हुआ यह वर्णन ३१२ वीं गाथा तक च ता है। सूर्याभ देव और शक देवेन्द्र के वर्णन में थोड़ा अन्तर है। प्रस्तुत क्रम में सूर्याभ देव के नाम, राजधानी, परिवार आदि के स्थान को खाली छोड़ते हुए जोड़ के सामने 'रायपसेणइयं' का पाठ उद्धृत किया गया है।
*लय : सुण चरिताली! थारा लक्षण १. 'रायपसेणइयं' सूत्र २७६ में सपतिट्ठाणं के बाद वायकरगाणं चित्ताणं रयण
करंडगाणं पाठ है । इसकी मुद्रित वृत्ति में वायकरगाण और रयणकरंडगाणं ये दो पाठ हैं । वृत्ति के अनुसार रयणकरंडग शब्द का अर्थ है--चित्र रत्न करंडग (वृ० प० २४२) ।
इस पाठ की जोड़ में केवल एक ही शब्द है-'चित्र रत्नकरण्डिया' जो वृत्तिकार द्वारा किए गए अर्थ का संवादी लगता है। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में वायकरगाणं और चित्ताणं पाठ नही थे । ये पाठ कई प्रतियों में उपलब्ध नहीं हैं। यह सूचना रायपसेणइयं पृ० १०७ की टिप्पण संख्या २ में दी गई है।
३४८ भगवती-जोड़
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