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________________ प्रकाशकीय 'भगवती-जोड़' का प्रथम खण्ड जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के अवसर पर 'जय वाङ्मय' के चतुर्दश ग्रन्थ के रूप में सन् १६८१ में प्रकाशित हुआ था । इसका दूसरा खण्ड सन् १९८६ में प्रकाशित हुआ। अब उसी ग्रन्थ का तृतीय खंड पाठकों के हाथों में सौंपते हुए अति हर्ष का अनुभव हो रहा है । प्रथम खण्ड में उक्त ग्रन्थ के चार शतक समाहित है। द्वितीय खण्ड में पांचवें से लेकर आठवें शतक तक की सामग्री समाहित है । प्रस्तुत खण्ड में नौवें से ग्यारहवें तक तीन शतक संगृहीत हैं । साहित्य की बहुविध दिशाओं में आगम ग्रन्थों पर श्रीमज्जयाचार्य ने जो कार्य किया है वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । प्राकृत आगमों को राजस्थानी जनता के लिए सुबोध करने की दृष्टि से उन्होंने उनका राजस्थानी पद्यानुवाद किया जो सुमधुर रागिनियों में ग्रथित है। प्रथम आचारांग की जोड़, उत्तराध्ययन की जोड़, अनुयोगद्वार की जोड़, पन्नवणा की जोड़, संजया की जोड़, नियंठा की जोड़ - ये कृतियां उक्त दिशा में जयाचार्य के विस्तृत कार्य की परिचायक हैं । "भगवई " अंग ग्रन्थों में सबसे विशाल है। विषयों की दृष्टि से यह एक महान् उदधि है। जयाचार्य ने इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ का भी राजस्थानी भाषा में गीतिकाबद्ध पद्यानुवाद किया । यह राजस्थानी भाषा का सबसे बड़ा ग्रंथ माना गया है । इसमें मूल के साथ टीका ग्रंथों का भी अनुवाद है और वार्तिक के रूप में अपने मंतव्यों को बड़ी स्पष्टता के साथ प्रस्तुत किया है । इसमें विभिन्न लय ग्रथित ५०१ ढालें तथा कुछ अन्तर ढालें हैं । ४१ ढालें केवल दोहों में हैं । ग्रन्थ में ३२६ रागिनियां प्रयुक्त हैं । इसमें ४६९३ दोहे, २२२५४ गाथाएं, ६५५२ सोरठे, ४३१ विभिन्न छन्द, १८४८ प्राकृत, संस्कृत पद्य तथा ७४४६ पद्यपरिमाण ११६० गीतिकाएं, १३२६ पद्य परिमाण ४०४ यन्त्रचित्र आदि हैं। इसका अनुष्टुप् पद्य परिमाण ग्रंथाग्र ६०९०६ है । प्रस्तुत खंड में मूल राजस्थानी कृति के साथ सम्बन्धित आगम पाठ और टीका की व्याख्या गाथाओं के समकक्ष में दे दी गई है । इससे पाठकों को समझने की सुविधा के साथ-साथ मूल कृति के विशेष मंतव्य की जानकारी भी हो सकेगी । इस ग्रंथ का कार्य युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के तत्वाधान में हुआ है और साध्वी प्रमुखा कनकप्रभाजी ने उनका पूरा-पूरा हाथ बंटाया है । उनका श्रम पग-पग पर अनुभूत होता-सा दृग्गोचर होता है । योगक्षेम वर्ष की सम्पन्नता के बाद बहुत शीघ्र ही ऐसे ग्रंथ रत्न के तृतीय खंड को पाठकों के हाथों में प्रदान करते हुए जैन विश्व भारती अपने आपको अत्यन्त गौरवान्वित अनुभव करती है । इस ग्रंथ का मुद्रण कार्य जैन विश्व भारती के निजी मुद्रणालय में संपन्न हुआ है, जिसकी स्थापना जयाचार्य निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में मित्र परिषद् कलकत्ता के आर्थिक सौजन्य से हुई थी । ४-३-६० सुजानगढ़ Jain Education International For Private & Personal Use Only श्रीचन्द रामपुरिया कुलपति जैन विश्व भारती www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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