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इस शतक के दसवें उद्देशक में लोक और अलोक का विवेचन है। ग्यारहवें उद्देशक में काल का वर्णन है। भगवान महावीर के पास काल सम्बन्धी प्रश्न सेठ सुदर्शन ने उठाया। उस प्रश्न के उत्तर में सेठ सुदर्शन के पिछले भव को विस्तार के साथ वणित किया है । बारहवें उद्देशक में ऋषिभद्र और पोग्गल परिव्राजक का वर्णन है।
प्रस्तुत खण्ड का सम्पादन भी पूर्व दो खण्डों की तरह परम श्रद्धास्पद आचार्य श्री तुलसी के सान्निध्य में बैठकर किया गया हैं। ग्रन्थ की भाषा, शैली तथा ग्रन्थाकार के सम्बन्ध में पूर्व दो खण्डों के सम्पादकीय में चर्चा हो चुकी है। इस दृष्टि से प्रस्तुत खंड में केवल तीन शतकों की विषय वस्तु को ही उल्लिखित किया गया है।
प्रथम दो खण्डों में ग्रन्थ के प्रारंभ में विषयानुक्रम नहीं है। अनुक्रम के संकेत बिना इतने बड़े ग्रन्थ में किसी विषय को खोजना बहुत कठिन प्रतीत हुआ। इस क्षेत्र में शोध करने वाले विद्वानों को इस कठिनाई का सामना न करना पड़े, इस दृष्टि से प्रस्तुत खण्ड में ग्रन्थ के प्रारम्भ में विषयानुक्रम दिया गया है। ग्रन्थ का एक बड़ा भाग मुद्रित होने के बाद यह बात ध्यान में आई इसलिए ग्रन्थ के बीच विषयों की सूचना नहीं दी जा सकी। इस कमी की पूर्ति अगले खण्ड में की जा सकेगी।
परमाराध्य आचार्यश्री का दिशाबोधक सान्निध्य समय-समय पर युवाचार्यश्री का मार्ग-दर्शन और सहकर्मी साधु-साध्वियों का आत्मीय सहयोग भगवती-जोड़ की इस यात्रा को आगे से आगे सरल और आह्लाददायक बनाता रहे, यही आकांक्षा है।
साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा
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