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२८. नारकि संतरे नीकलै, नीकलै अंतर-रहीतो।
यावत व्यंतर नीकलै, अंतर-रहित-सहीतो?
२६. जोतिषि नैं वैमानिया, अंतर-सहित चवंतो।
तथा निरंतर ते चवै ? ए प्रश्न समूह पूछंतो। ३०. जिन कहै नारकि ऊपजै, अंतर-सहित-रहीतो।
इमहिज भवनपति दशं, उपजै तेह वदीतो॥
३१. सांतर पृथ्वी न ऊपज, उपजै अंतर-रहीतो।
एवं जावत वणस्सई, शेष नरक जिम कहोतो।।
२८. संतरं नेरइया उव्वद॒ति निरंतर नेरइया उब्वटुंति
जाब संतरं वाणमंतरा उव्वदति निरंतरं बाणमंतरा
उन्वट्ठति ? २६. संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं जोइसिया चयंति
संतर वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति ? ३०. गंगेया ! संतरं पि नेरइया उववज्जंति निरंतरं पि
नेरइया उववज्जति जाव संतरं पि थणियकुमारा
उववज्जति निरंतर पि थणियकुमारा उववज्जंति, ३१. नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जति निरंतरं पुढ
विक्काइया उववज्जंति, एवं जाव वणस्सइकाइया , सेसा जहा नेरइया जाव संतरं पि वेमाणिया उबवज्जति
निरंतरं पि वेमाणिया उववज्जंति। ३२. संतरं पि नेरइया उव्वद्भृति निरंतरं पि नेरइया
उब्वटुंति, एवं जाव थणियकुमारा। ३३. नो संतरं पुढविक्काइया उब्वटुंति निरंतरं पुढवि
क्काइया उब्वटुंति, एवं जाव बणस्सइकाइया । सेसा
जहा नेरइया, ३४. नवरं- जोइसिय-वेमाणिया चयंति अभिलावो जाव
संतरं पि वेमाणिया चयंति निरंतर पि वेमाणिया चयंति ।
(श०६/१२०)
३२. अंतर-सहित पिण नेरइया, नोकले छै किणवारो।
अंतर-रहित पिण नीकल, इम जाव थणियकुमारो॥ ३३. सांतर पृथ्वी न नीकलै, नीकलै अंतर-रहितो।
एवं जाव वनस्पति, शेष नरक जिम कहितो॥
३४. णवरं जोतिषि विमाणिया, चयंति इहविध कहितो।
यावत वैमानिक चवै, अंतर-सहित रु रहितो।
सोरठा ३५. हिव नारकादि प्रपन्न, अन्य प्रकार करी तसु ।
उत्पत्ति उद्वर्त्तन, कहियै छै ते सांभलो॥ ३६. *प्रभ ! छता नेरइया ऊपज, अछता ऊपजै तेहो ?
जिन कहै छताज ऊपज, अछता नहीं उपजेहो।
वा-छता ते विद्यमान द्रव्यार्थपणे करी, पिण सर्वथा अछतो कांइ न ऊपज अछतापणां थकीज खरशृंग नी पर। जे माटै विद्यमानपणों तो तेहनौं जीव द्रव्य नी अपेक्षा करी अथवा नारक पर्याय नी अपेक्षा करी। तिण प्रकार करिक हीज भावी नारक पर्याय नी अपेक्षाए द्रव्य थीं नेरइया छता नेरइएपणे ऊपजै अधवा नरक नां आउखा नां उदय थकी भाव नेरइया हीज नेरइयापणे करी ऊपजै ।
भाव नेरइया किणनै कहिये ? उत्तर-जे नरक नों आउखो भोगवै ते भाव नेरइया कहिये । अन्तराल गति नै विषे वर्तमान इत्यर्थः । ___अथवा सतो कहितां विभक्ति नां परिणाम थी छता नै विषे ते पूर्व ऊपनां ने विषे अनेरा ऊपजै पिण अछता नै विषे न ऊपजै लोक ने शाश्वतपण करी सदाकाल हीज सद्भाव थी। ३७. एवं जाब विमाणिया, छता ऊपजै सोयो।
पिण अछता वैमाणिक तणो, ऊपज नहि होयो। ३८. प्रभ! छता नेरइया नीकले, कै अछता निकलै त्यांही?
जिन कहै छताज नीकलै, अछता नीकलै नांहो ।। *लय : कुशल देश सुहामणो
३५. अथ नारकादीनामेव प्रकारान्तरेणोत्पादोद्वर्त्तने निरूपयन्नाह -
(वृ०प० ४५५) ३६. सतो भंते ! नेरइया उबज्जति ? असतो नेरइया
उववज्जति ? गंगेया ! सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति । वा०-'सन्तः' विद्यमाना द्रव्यार्थतया, नहि सर्वथैवासत् किञ्चिदुत्पद्यते, असत्त्वादेव खरविषाणवत्, सत्वं च तेषां जीवद्रव्यापेक्षया नारकपर्यायापेक्षया वा, तथाहि -भाविनारकपर्यायापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सन्तो नारका उत्पद्यन्ते, नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति ।
(वृ० प० ४५५) अथवा 'सओ' त्ति विभक्तिपरिणाभात् सत्सु प्रागुत्पन्नेध्वन्ये समुत्पद्यन्ते नासत्सु, लोकस्य शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव सद्भावादिति ।
(वृ० प० ४५५) ३७. एवं जाव वेमाणिया।
३८. सतो भंते ! नेरइया उव्वदति ? असतो नेरइया
उब्वदंति? गंगेया ! सतो नेरइया उब्वटुंति, नो असतो नेरइया उध्वट्ठति ।
२२. भगवती-जोड़
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