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१८. वैमानिक में
जान,
तथा अल्प ते स्थान,
ते
हि च्यार गति में प्रवेशन नों अल्पबहुत्व कहै छै -
! १२. ए प्रभु नरक-प्रवेशनं देव- प्रवेशन ने विषे
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२०. जिन कहे बोड़ा मनुष्य क्षेत्र में इज
सर्व
हुये
२३. तिथंच गति रै मांय, असंखगुणो इन म्याय,
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सोरठा
जावणहारा अल्प छै । कारण थोड़ा कह्या ॥
वहा
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तिर्यच मनुष्य प्रवेशो । कुणकुण जाव विशेषो ?
थी, मनुष्य-प्रवेशनतो ।
ते भनी अल्प कहंतो ॥
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२१. तेहथी नरक - प्रवेशनं,
असंखेजगुण आख्या ।
नरक गमन करे तिके, नर ते असंखगुणा भाव्या || देव- प्रवेशनं, असंखेजगुण जाणी । २२. तेहथी तिरि-प्रवेशन तेह थी, असंखगुण पहिछाणी ॥
सोरठा
नरक मनुष्य सुर थी हुवै। विजातिया ने प्रवेशनं ॥
हा
ते तो
उत्पाद
२४. पूर्व प्रवेशन आवियो, बलि उद्धर्तन रूप है, तब संबंध इम लाध ।। २५. नरकादिक नां ते विहं उत्पत उद्वर्त्तन । अंतर-सहित रहितपणे, कीजे तेहिज प्रश्न ॥ उपजे अंतर-सहीतो । के नारक नो नेरइया उपजे अंतर रहीतो ?
*२६. नारक हे भगवंत जी! नां
२७. असुर अंतर-सहित ऊपजे जाय वैमानिक ऊपजे
उपजे अंतर-रहीतो । अंतर-रहित सहीतो ?
*लय : कुशल देश सुहामणो
में सम्पादित होकर 'जैन विश्व भारती' द्वारा प्रकाशित हुआ है, के शतक 8 सूत्र ११८ में 'संखेज्जगुणा' पाठ है। मूल पाठ के इस अन्तर ने एक सन्देह खड़ा कर
दिया। उसके निराकरण हेतु भगवती सूत्र की प्रतियों का निरीक्षण किया । प्राचीन प्रतियों में गुजापाठ मिला तब हमने 'भगवती' को देखा। यह भगवती सूत्र की वह प्रति है जिसके आधार पर जयाचार्य ने 'जोड़' की रचना की थी, जो जयाचार्य के विद्यागुरु मुनि हेमराजजी के लिए स्वयं जयाचार्य (मुनि अवस्था) एवं मुनि सतीदासजी द्वारा लिखित है ।
'हेम भगवती' के मूल पाठ में 'असंखेज्जगुणा' पाठ लिखकर 'अकार' को दी रेखाओं द्वारा पित किया गया है, पर उसके अर्थ में असंख्यातगुणा ही लिखा हुआ है। इससे यह सिद्ध होता है कि संखेज्जगुणा' की बात समझ में आ गई थी, किन्तु अर्थ लिखते समय वह विस्मृत हो गई। जोड़ की रचना करते समय अर्थ की बात ही ध्यान में रहने से असंख्यातगुणा हो गया। जोड़ के सम्पादन काल में अंग सुत्ताणि तथा हेमभगवती को आधार मानकर यहां संख्यातगुणा किया गया है।
१०. सवय माणिवदेवव्यवेसण तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति ।
१६. एयस्स णं भंते ! नेरइयपवेसणगस्स तिरिक्खजोणियपवेसणस्स मणुस्सपवेसणगस्स देवपवेसणगस्स य कयरे कमरे हितो नाव (सं० पा० ) विसेसाहिया वा ? २०. गावे मस्त
मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात् तस्य च स्तोकत्वात्,
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( वृ० प० ४५३ )
२१. अणे, उद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात् २२. देव देणे असंखेज्नमुणे ।
त्ति तद्ामिनां ( वृ० प० ४५३ )
( वृ० प० ४५३) तिरिक्नोपियपवेसणए ( श० ९1११९ )
२४, २५. अनन्तरं प्रवेशनकमुक्तं तत्पुनरुत्पादोद्वर्त्तनारूपमिति भारकादीनामुपामुद्रा सान्तरभिरन्तरतया निरूपयन्नाह - ( वृ० प० ४५३ )
२६. संतरं भंते! नेरइया उववज्जंति निरंतरं नेरइया उववज्जति
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२७. संतरं असुकुमारा उननिरंतर असुरकुमारा उववज्जति जाव संतरं वैमाणिया उववज्जंति निरंतरं वैमाणिया उववज्जंति ?
श० ६, उ० ३२, ढाल १६२ २१8
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