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________________ ५. दो भंते ! देवा देवपवेसणएणं-पुच्छा । *प्रश्न करै गंगेय जी॥ [ध्रुपदं] ५. जीव दोय भगवंत जी ! देव प्रवेशन करता जी काइ। स्यं हवै भवनपति विषे, जाव वैमानिक वरता जी काइ? ६. जिन कहै भवनपति बिहुं, अथवा व्यंतर मझारो जी कांइ। जोतिषी वैमानिक तथा, इक संयोगिक च्यारो जी कांइ। [जिन कहै गंगेया ! सुणे] ७. अथवा एक भवनपति, इक व्यंतर में होयो। तिरिक्ख प्रवेशन जिम कह्यो, तिम सूर भणवा जोयो ।। ६. गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा होज्जा । ८. जाव असंख्याता लगै, हिवै उत्कृष्ट पद पृच्छा। जिन कहे जोतिषि ह सहु, ए इकयोगिक इच्छा ।। ७. अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होज्जा, एवं जहा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवपवेसणए वि भाणियब्वे। ८. जाव असंखेज्ज त्ति। (श० ६।११६) उक्कोसा भंते !-पुच्छा। गंगेया ! सव्वे वि ताब जोइसिएसु होज्जा, वा०-ज्योतिष्कगामिनो बहव इति तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशनकवन्त: सर्वेऽपि भवन्तीति (वृ०प० ४५३) ६. अहवा जोइसिय-भवणवासीसु य होज्जा, अहवा जोइ सिय वाणमंतरेसु य होज्जा, १०. अहवा जोइसिय-वेमाणिएसु य होज्जा, वा० --जोतिषी नै विषे जाणहार घणां ते माट उत्कृष्ट पद ना धणी देव प्रवेशनवंत सगलाई हुवै । ६. अथवा जोतिषी नैं विषे, भवनपति में होयो। अथवा जोतिषी नै विष, वाणव्यंतर में जोयो ।। १०. अथवा जोतीषी नैं विषे, वैमानिक में जोयो। द्विकसंजोगिक आखिया, ए त्रिहुं भांगा ताह्यो ।। ११. अथवा जोतिषी - विषे, भवनपति में होयो। वाणव्यंतर में है बलि, ए धुर भांगो जोयो ।। १२. अथवा जोतिषी ने विषे, भवनपति रै मांह्यो। वैमानिक में ह वलि, द्वितीय भंग कहिवायो । १३. अथवा जोतिषी नैं विषे, वाणमंतर रै मांह्यो । वैमानिक में ह वली, तृतीय भंग ए पायो । १४. अथवा जोतिषी नैं विषे, भवनपति में पेखो। व्यंतर वैमानिक विषे, चउक्कसंयोगिक एको ।। १५. भवनपति व्यंतर प्रभु ! जोतिषो देव प्रवेशो। वलि प्रवेश वैमानिके, कुण-कुण जाव विशेषो? ११. अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य होज्जा, १२. अहवा जोइसिएमु य भवणवासीसु य वेमाणिएसु य होज्जा, १३. अहवा जोइसिएसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा, १४. अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा। (श० ६।११७) १५. एयस्स णं भंते ! भवणवासिदेवरवेसण मस्स, वाण मंतरदेवपवेसणगस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, बेमाणियदेवपवेरुणगस्स य कयरे कयरेहितो जाव (सं० पा०) विसेसाहिया वा? १६. गंगेया ! सम्वत्थोवे वेमाणियदेवपवेसणए, भवण वासिदेवपवेसणए असंखेज्जगुणे, १७. वाणमंतरदेवपवे तणए असंखेज्जगुणे, जोइसियदेवपवेसणए संखेज्जगुणे। (श० ६।११८) १६. जिन कहै थोड़ा सर्व थी, वैमानिक सुप्रवेशो। भवनपति में प्रवेश ते, असंखेजगुण एसो॥ १७. वाणमंतर में प्रवेशनं, असंख्यातगुण जाणी। जोतिषी देव प्रवेशनं, संख्यात-गुणां' पहिछाणी ।। *लय : कुशल देश सुहामणो १. भगवती की जोड़ ढाल १६२ गाथा १७ में व्यन्तर एवं ज्योतिषि देवों में जीव के प्रवेश का वर्णन करते हुए लिखा गया है वाणमंतर में प्रवेशनं, असंख्यात गुण जाणी। ज्योतिषी देव प्रवेशनं, असंख्यात गुणा पहिछाणी ।। यहां जोड़ की मूल प्रति तथा उसकी प्रतिलिपि वाली प्रतियों में 'असंख्यात गुणा' लिखा हुआ है। किन्तु अंगसुत्ताणि भाग २, जो आगम-सम्पादन की शृंखला २१८ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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