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१६. गोयमा ! गए बहुए, नो अगए बहुए,
२०. गयाओ से अगए असंखेज्जइभागे
१६. वीर कहै सुण गोयमा जी ! गयो क्षेत्र बहु होय ।
रह्यो क्षेत्र बहलो नहीं जी, तास मान त जोय ।। २०. गयो क्षेत्र छ तेहथी जी, रह्यो क्षेत्र जे एथ।
असंख्यातमों भाग छै जी, न गयो इतरो खेत ।। २१. रह्यो क्षेत्र छै तेहथी जी, गयो क्षेत्र सुविचार । __ असंख्यातगुणो आखियो जी, अदल न्याय अवधार ।।
२१. अगयाओ से गए असंखेज्जगुण
सोरठा २२. पूर्व आदि दिशि च्यार, अर्द्ध रज्जू गिरि मेरु थी।
ऊर्द्ध अधो अवधार, सप्त रज्जु न्यूनाधिके ।।
२२. ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धरज्जुप्रमाणत्वाल्लोकस्योर्वा
धश्च किञ्चिन्न्यूना धिकसप्तरज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया
गत्या गच्छतां देवानां (वृ० ५० ५२७) २३. कथं षट्स्वपि दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसंख्यातभागमात्र
(वृ० ५० ५२७) २४. अगताच्च गतमसंख्यातगुणमिति (वृ० प० ५२७)
२३. षट दिशि में सुर माग, अगत क्षेत्र गत क्षेत्र थी।
असंख्यातमें भाग, न्याय तास किम एहनों ।। २४. तथा अगत थी जाण, असंख्यात गुण क्षेत्र गत ।
एहनों पिण पहिछाण, किण विध न्याय कहीजिये ।। २५. घन कृत कल्पित लोग, लांबो चोडो सप्त रज्जू ।
इतरो जाडो जोग, विच मंदर सुर अवतरण ।। २६. इण गति करि लोकंत, बहु काले पावै न सुर ।
तो झट किम आवंत, अच्युत जिन जन्मादिके ?
२५. घनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः ।
(वृ०प०५२७) २६. ननु यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवा लोकान्तं
बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताज्जिन
जन्मादिषु द्रागवतरन्ति (वृ० प० ५२७) २७. बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति ।
(वृ० प० ५२७) २८. सत्यं, किन्तु मन्देयं गतिः जिनजन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति ।
(वृ० ५० ५२७)
२७. बहुत क्षेत्र ए जोय, अल्प काल अवतरण को।
तसु उत्तर अवलोय, वृत्तिकार इम आखियो ।। २८. आखी मंद गति एह, जिन जनमादिक अवसरे।
सुर अवतरण करेह, अति गति शीघ्र करी इहां ।।
वा...-इहां शिष्य प्रश्न करै जो पूर्वे कही तिण गति करिक जाता थका पिण देवता बहु काल करिक पिण लोक नों अंत न पामै तो बारमा देवलोक नां इंद्रादि जिन जन्मादि नै विषे शीघ्र किम अवतरे, क्षेत्र नां बहुपणां थकी अने अवतरण काल नां अल्पपणां थकी। इम शिष्य पूच्चे थके गुरु कहै—ए सत्य, पिण पूर्वे ए सुर नी गति कही ते मंद छ। अनै जिन जन्मादि काले सुर आवै ते गति अतिही शीघ्र छ । २६. लोक इतो मोटो कह्यो जी, कहै गोतम नैं जिनेश ।
एकादशमां शतक नों जी, दशम उद्देशक देश ।। ३०. दोयसौ नैं तेतीसमीजी, आखी ढाल उदार ।
भिक्षु भारीमाल ऋषिराय थी जी, 'जय-जश' हरष अपार ।।
२६. लोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते ।
(श० ११।१०६)
१. इस वार्तिका का निर्माण जिस वृत्ति के आधार पर किया गया है, वह पूर्ववर्ती गाथा २६-२८ के सामने उद्धत है। इसलिए यहां वार्तिका के सामने उसे नहीं रखा गया है।
४२४ भगवती-जोड़
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