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७. अथवा विचित्य धार, राग तणोंज विकार तसु । तथा विरूपाकार, क्रिया सरागपणे करि ॥
८. जे अवस्थाने जेह, राग विकारज जिम हवै।
क्रिया सरागपणेह, अर्थ कह्यो ए वृत्ति थी। ६. *पंथ मारग नैं विषे रही नैं, उपलक्षण थी जेहो।
अन्य आधारे रही मुख आगल रूप जोवै धर नेहो ।
७. अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः, अथवा विरूपा कृति:-क्रिया सरागत्वात् ।।
(व०प० ४६५) ८. यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं
(वृ० प० ४६५) ६. ठिच्चा पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स 'पंथे' त्ति मार्गे 'अवयक्खमाणस्स' त्ति अवकांक्षतोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वादन्यत्राप्या
धारे स्थित्वेति द्रष्टव्यं (वृ०प० ४६६) १०. मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स, पासओ रूवाई
अवलोएमाणस्स ११. उड्ढं रूवाइं ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई आलोए
माणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया
कज्जइ ? संपराइया किरिया कज्जइ ? १२. गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा
१०. पूरी रूप अछ त्यांरी पिण, देखण इच्छा धरतो।
बिहुँ पस वाड़े रू प्रत पिण, अति अवलोकन करतो । ११. ऊर्द्ध रह्या ते रूप विलोकत, अधो रूप पिण जोवै।
स्यूं प्रभु ! तसु इरियावहि किरिया, कै संपरायिकी होवै?
१२. श्री जिन भाखै सुण गोतम शिष ! संवत जे अणगारो।
कषायवंत पंथ रहि मारग, जोवै रूप जिवारो॥ १३. यावत जेहनै इरियावहिया किरिया मूल न थाई। ___ संपरायिकी किरिया जेहनें, उपजै अशुभ बंधाई ।। १४. किण अर्थे करिने हे प्रभुजी ! आखी एहवी वायो।
संवत ने यावत संपरायिकी किरिया अशुभ बंधायो। १५. जिन कहै जेहनें क्रोध मान वलि, माया लोभ पिछाणी ।
जिम सप्तम शत प्रथम उद्देशक', यावत उत्सूत्रे ठाणी ।। १६. वृत्तिकार कह्यो जाव शब्द में, वोच्छिण्णा जास कषायो ।
तेहने इरियावहिया किरिया, चोकड़ी उदय न ताह्यो ।। १७. क्रोध मान अरु माय लोभ जसु, अवोच्छिण्णा कहिवायो।
उदय कपाय नहीं क्षय उपशम, किरिया संपरायिकी ताह्यो ।। १८. अहासुत्तं जिम सूत्र कह्य, तिम चाले न चकै लिगारो।
वीतराग मुनि आश्री वचन ए, तसु इरियावहि सुविचारो ।। १६. उत्सूत्र ते आगम अतिक्रम नैं, चालै जिनाज्ञा बारो।
संपरायिकी क्रिया तेहने, अशुभ जोग व्यापारो।।
१३. जाव (सं० पा०) तस्स णं नो इरियावहिया किरिया ___कज्जइ संपराइया किरिया कज्जइ। (श० १०११) १४. से केणठेणं भंते ! एवं बुच्चइ-संवुडस्स णं जाव
संपराइया किरिया कज्जइ? १५. गोयमा ! जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा एवं जहा
सत्तमसए पढमउद्देसए (सू० २१) जाव (सं० पा० ) १६. से वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया
कज्जइ १७. जस्स णं कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा भवंति
तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ १८. अहासुत्तं रीयमाणस्स इरियावहिया किरिया कज्जइ
१६. उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।
'से णं उस्सुत्तमेव' त्ति स पुनरुत्सूत्रमेवागमातिक्रमणत एव ।
(वृ० प० ४६६) २०. से णं उस्सुत्तमेव रीयति ।
२०. जाव शब्द में एह कह्या छ, जे पंथ रही रूप जोवै ।
तेह उत्सूत्रपणेज प्रवत्त, अशुभ जोगी इम होवै ।।
*लय : कुंकुवर्णी हुंती रे देही १. यह जोड़ संक्षिप्त पाठ के आधार पर की गई है, इसलिए इसके सामने पाद
टिप्पण का पाठ उद्धृत किया है। २. जयाचार्य ने जोड़ की रचना संक्षिप्त पाठ के आधार पर की। उसके बाद
वृत्ति के आधार पर जाव की पूर्ति कर छूटे हुए पाठ की जोड़ लिख दी। अंगसुत्ताणि में संक्षिप्त पाठ को पाद टिप्पण में रखा गया है और मूल में पाठ पुरा लिया है। इसलिए यहां वृत्तिकार का उल्लेख होने पर भी अंगसुत्ताणि
का पाठ उद्धृत किया गया है। ३१८ भगवती-जोड़
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