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________________ ६७. इण अर्थ विषे प्रव्रज्या पालण में, प्रमाद न करिवं लिगार। इम कही जमाली क्षत्रियकुमार नां, मात पिता तिहवार ।। ६९. श्रमण भगवंत महावीर ने वांदै, नमस्कार करै करि ताय । जिण दिशि थी आया प्रगट हुआ था, तिण दिशि पाछा जाय ।। ६८. अस्सि च णं अट्ठे णो पमाएतब्वं ति कटु जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो 'अस्सि चे' त्यादि, अस्मिश्चार्थे-प्रव्रज्यानुपालन लक्षणे न प्रमादयितव्यमिति (वृ० प०४८४) ६६. समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। (श० ६।२१३) ७०. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ ७१. एवं जहा उसभदत्तो तहेव पव्वइओ नवरं पंचहि पुरिससएहिं सद्धि तहेव जाव (सं० पा०) ७०. जमाली क्षत्रियकुमर तिण अवसर, स्वयमेव पोते निज हाथ । पंच मुष्टी लोच करै करीन, आयो जिहां जगनाथ ।। ७१. इम जिम ऋषभदत्त दीक्षा लीधी, तिमज प्रव्रज्या लीधं । णवरं पंच सौ पुरुष संघाते, तिमहिज सर्व' प्रसीधं ।। सोरठा ७२. कह्य ऋषभदत्त जिम जाण, इह वचने महावीर प्रति । तीन वार पहिछाण, दक्षिण नां पासा थकी। ७३. करै प्रदक्षिण ताम, वंदै नमण करै करी। इम बोल अभिराम, आलित्त लोक इत्यादि जे॥ ७४ *जाव सामायिक आदि देइने, कांइ अंग एकादश सार । भण भणी बह चौथ छठ तप, अठम भक्त उदार ।। ७५. मास अनैं अर्द्धमास खमण वली, विचित्र तप कर्म करेह । आतम प्रति भावतो विचरै, वीर प्रभू समीपेह ॥ ७६. तिण अवसर अणगार जमाली, अन्य दिवस किणवार ।। जिहां श्रमण भगवंत महावीर प्रभु, तिहां आवै आवीनै धार ।। ७७. श्रमण भगवंत महावीर प्रतै जे, वांदै करै नमस्कार । प्रभ वांदी नमस्कार करीन, इम बोलै जिहवार ।। ७८. वांछु छु हे प्रभु ! तुझ आज्ञा थी, पंच सौ संत संघात । बाहिर जनपद देश विषे जे, विहार करिव जगनाथ ॥ ७२,७३. एवं जहा उसभदत्तो इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं (व०प०४८४) उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी आलित्ते णं भंते ! ७४,७५. जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहि ज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थ-छट्ठम-दसम-दुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। (श० ६।२१५) ७६. तए णं से जमाली अणगारे अण्णया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ७७. समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी७८. इच्छामि णं भंते ! तुब्भेहि अब्भणुण्णाए समाणे पंचहि अणगारसएहिं सद्धि बहिया जणवयविहारं बिहरित्तए। (श०६।२१६) ७६,८०. तए णं सभणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगा रस्स एयमट्ठ नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ॥ (श० ६।२१७) ७६. श्रमण भगवंत महावीर तदा, जमाली नां ए अर्थ प्रतेह । आदर न दिये तेह अर्थ विषे, अणआदर देता जेह ।। ८०. बलि चित्त में भलो पिण नहिं जाण, देख्यो दोष ऊपजवानों भाव। ते माटै आज्ञा नहि दीधी, प्रभु मून रह्या ते प्रस्ताव ।। ८१. तव जमाली अणगार श्रमण भगवंत महावीर प्रतै दूजी वार । तीजी वार पिण इहविध बोले, हूं वांछे छू जगतार । ८१. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीर दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. पा० टि०७ में सं० पा० दिया गया है। इस पाठ की जोड़ करने के बाद आगे की दो गाथाओं में विस्तृत पाठ के आधार पर जोड़ लिखकर फिर दो गाथाओं में सं० पा० को आधार बनाया गया है । इसलिए इन गाथाओं के सामने कहीं पा० टि० का और कहीं मूल का पाठ उद्धृत है। २८६ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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