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________________ जे नारक देवता रे उपपात क्षेत्र सूक्ष्म एकेंन्द्रिय जीव नो संभव छ, तथा पोलाड़ में बादर वायुकाय नों संभव छे, तो पिण नारक देवता नां उपपात क्षेत्र नां पुद्गल समूह किणही जीवे करि परिगृहीत नहि ते भणी देवता नारक नै अचित्त योनि कहिये । अने गर्भवास योनि मिथ ठिकाणी सचितगां भाव भी जीव ग्रहण कीधा क्षेत्र ने विषे उपजव ते अचित्त । त्रिविधापि योनि इत्यर्थः । शुरु शोषित पुद्गल तो अति नै गर्म गो शेष पृथ्वीव्यादि सम्मुच्छिम तियंच मनुष्य नो विषे उत्पत्ति ते सचित्त । जीव ग्रहण अणकीधा क्षेत्र नं अनें उभय रूप क्षेत्र ने विषे उपजवो, ते मिश्र । इम भंते! योनि केतला प्रकार नी कहिये ? मोतम । योनि तीन प्रकार भी कहिये संबुडा जोणी, विपदा जोगी, बुवा जोगी। उत्पत्ति स्थानक संवृत-आच्छादित हुवं ते संवृत योनि कहिये । उत्पत्ति स्थानक विवृत - उघाड़ो हुवै ते विवृता योनि । कांइक संवृत कांइक विवृत हुवै, ते संवृत - विवृता योनि । संयुतादि योनि प्रकरणार्थ संग्रह बस इम एकेंद्रिय नं संयुता योनि । तथा सभाव थकी एकेंद्रिय नें उत्पत्ति स्थानक स्पष्टपणे ओलखायें नहीं, ते मार्ट संवृतानि । नारक नै पिण संवृता योनि हीज जे कारण थकी नरक निष्कुटा ते कुंभी संत ते उक्या गवाक्ष सरीखी है एतनं नारकी में उत्पत्ति-स्थानक कुंभीढांक्या गोख ने आकार छ । तेहने विषे ऊपनां ते देह वध्यां छतां तेह थकी पड़ शीत निष्कुट थकी उष्ण क्षेत्र नै विषे पड़े अनें उष्ण निष्कुट थकी शीत क्षेत्र नैं विधे प अने देवता नी पसंत ही योनि कहिये जे भणी देव-ज्या ने विधे देवता उपज, देव-दृष्य वस्त्रे करी ते ज्या डोकी ते सेज्या नं विधे अपन अंगुल ने असंख्यात में भाग अवगाहना देवता नी जाणवी । विककेंद्री वियडा योनि छ । तेहना दीस छ । समुच्छिम पंचेंद्रिय तिर्यंच ने अने योनि कहिवी । विवृता योनि विशेषणपणें योनि दीस छ । शेष बे योनि नथी । उत्पत्ति स्थानक जलाशयादि प्रत्यक्ष समुच्छिम मनुष्य ने इमज विवृता उत्पत्ति स्थानक जलाश्रय प्रमुख प्रगट अनंगज तिर्यय अनं मनुष्य ने संयुता योनि नयी वियुता योनि पिण नयी संतविता योनि गर्भ अभ्यंतर सरूप जगाए नहीं, बाह्य रूपं उदरवृद्ध्यादिक प्रत्यक्ष दीसँ छै ते माटै गर्भज ने संवृत - विवृता योनि छ । भंते! योनि केतला प्रकार नी कहिये ? गोतम ! योनि तीन प्रकार नीं कहिये - कुर्मोन्नता, शंखावर्त्ता, वंशीपत्रा । त्रिण भेदे योनि परूपी ते कहै छै - काछवा नीं पीठ नीं पर उन्नत हुवें ते कुमन्नता योनि ति में तीर्थकर, पत्रवर्ती वासुदेव बलदेव उत्तम पुरुष ग अपने उदर-वृद्धि नहुनपर्ण करी। Jain Education International खनी पर आवर्त व जिहां ते शंखावर्त्त योनि । स्त्री रत्न ने घणां जीव संबद्ध पुद्गल आवै, गर्भपणे उपजे पुष्ट हुवै, विशेष थी पुष्ट हुवै, पिण नीपजै For Private & Personal Use Only सत्यप्येकेसूक्ष्मजीवनिकायसम्भवे नारकदेवानां यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिज्जीवेन परिगृहीतमित्यचित्ता तेषां योनिः ( वृ० प० ४६६ ) गर्भवासयोनिस्तु मिश्रा शुकशोणितपुद्गलानामचित्तानां गर्भाशयस्य सचेतनस्य भावादिति शेषाणां पृथिव्यादीनां संमूर्च्छनवानां च मनुष्यादीनामुपपातक्षेत्रे जीवन परिगृहीतेरिगृहीते उभयरूपेोत्पत्तिरिति विधापि योनिरिति । ( वृ० प० ४९७ ) 'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोगी [पन्नत्ता से जहा संयुडा जोणी जोगी' (बृ० प० ४९७) जोगी - संयुतादियोभिप्रकरणार्थसंग्रहस्तु प्राय एवम् एकेन्द्रिया अपि संवृतयोनिका रोषामपि यो स्पष्ट मनुपलक्ष्यमानत्वात् (प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) नारकाणामपि संपती नरकनिष्टाः संवृतगवाक्षपास्तेषु च जातास्ते वर्द्धमानमूर्त्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्यो निष्णुदेभ्य उष्णेषु नरकेषु उष्णेभ्यस्तु शीतेष्विति ( वृ० प० ४९७) देवानामपि संवृर्तव यतो देवशयनीये दूष्यान्तरितोंगुलासंख्यात भागमात्रावगाहनो देव उत्पद्यत इति । ( वृ० प० ४९७ ) द्वन्द्रादीनां चतुरिन्द्रियपर्यन्तानां संमूमितिर्वपञ्चेन्द्रियसंमूच्छिममनुष्याणां च विवृता योनिः तेषा - मुत्पत्तिस्थानस्य जलाशयाचे स्पष्टमुपलभ्यमानत्वात् । ( प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) कान्तिकपि पेन्द्रियगर्भ कान्तिकमनुयाणां च संवृतविवृता योनिः गर्भस्य संवृतविवृतरूपत्वात् गमो ह्यन्तः स्वरूपतोनो हिस्सुबरवृद्ध्यादिनोपलक्ष्यते इति । ( प्रज्ञापना वृ० प० २२७ ) कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा कुम्मुन्नया संखावत्ता वंसीपत्ता कूर्मपृष्ठमिवोन्नता कूर्मोन्नता ( प्रज्ञापना वृ० प० २२८ ) ...कुम्मुण्णयाए णं जोणीए उत्तमपुरिसा गब्भे वक्कमंति तं जहा - अरहंता चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेवा (०२१२६) पण्ण शंखस्येवावर्ती यस्याः सा शंखावर्ता (प्रज्ञापनावृ० प० २२८ ) (s श० १० उ० १, ढाल २१५ ३२१ www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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