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________________ ३६. सर्व थकी शोभात, जन-मंडल चक्रवाल जे। तसु गमन विषे आख्यात, ते जिम ह तिम नीकलै ।। ४०. पउर जन पहिछाण, प्रचुर जना वा पुर जना । बाल वृद्ध बहु जाण, जेह प्रमोदज पावता ।। ४१. शीघ्र चालता सोय, ते अति व्याकुल तेहनां । जे बोल बहु जिहां होय, एहवू नभ करता छता' । ३६. 'समंतओ खुभियचक्कवाल' क्षुभितानि चक्रवालानि -जनमण्डलानि यत्र गमने तत्तथा तद्यथा भवत्येवं निर्गच्छतीति सम्बन्धः। (वृ० प० ४८३) ४०,४१. 'पउरजणबालवुड्ढपमुइयतुरियपहावियविउला उलबोलबहुलं नभं करते' पौरजनाश्च अथवा प्रचुरजनाश्च बाला वृद्धाश्च ये प्रमुदिता: त्वरितप्रधाविताश्च-शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानां-अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति (वृ० प० ४८३) ४२. खत्तियकुंडग्गामे नयरे मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ ४२. क्षत्रियकुंड जे ग्राम, नगर मध्य-मध्य थइ करी। एह भलावण ताम, वृत्ति थकी आख्यो इहां ॥ ४३. *जिहां माहण कंड ग्राम नगर छै, जिहां चैत्य भलो बहु साल। तिण स्थान आवै तिण स्थान आवी – देखे, जिन अतिशय सुविशाल ।। ४४. छत्रादिक जिन नां अतिशय देखी, पुरुष सहस्र उपाड़े जास। एहवी पवर सिवका थी ऊतरै, सिविका थी उतरी हुल्लास ।। ४५. जमाली क्षत्रियकुमर प्रतै तब, मात पिता आगल करि ताम । जिहां श्रमण भगवंत महावीर प्रभु छै, तिहां आवै आवी गुणधाम ॥ ४६. श्रमण भगवंत महावीर प्रभु नैं, जाव नमण करि बदै वाय। इम निश्चै प्रभुजी ! ए एक पुत्र मुझ, जमाली क्षत्रियसुत सुखदाय ।। ४७. इष्ट कांत मुझ बल्लभ यावत, किमंगपासणयाए सोय । ऊंबर फूल तणी पर एहनों, जाव दर्शण दोहिलं जोय । ४८. ते यथानाम दृष्टांत करीन, उत्पल चंद्रविकासी कंज। पद्म कमल ते सूर्यविकासी, जाव सहस्रपत्र मनरंज । सोरठा ४६. जाव शब्द थी वाद, कुमुद नलिन वा सुभग फुन । सौगंधिक इत्याद, लोक रूढि थी भेद तसु॥ ४३,४४. जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेब बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ ॥ (श०६।२०६) ४५. तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ४६. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव (सं० पा०) नमंसित्ता एवं वयासी- एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते ४७. इठे कंते जाव (सं० पा०) किमंग! पुण पासणयाए? ४८. से जहानामए उप्पले इ वा, पउमे इ वा जाव सहस्सपत्ते इ वा ५०. *ए कमल पंक कादा विषे ऊपनों, जल कर वधियो ताय । न लिपाइ पंक रूप रजे करि, जल रज करिकै न लिपाय ॥ ५१. इण दृष्टांते क्षत्रियसुत जमाली, काम शब्दादि करि उत्पन्न । गंध फर्श रस रूप भोग करि, वृद्धिपणुंज प्रपन्न । ४६. यावत्करणादिदं दृश्यं -'कुमुदेइ वा नलिणेइ वा सुभगेइ वा सोगंधिएइ वा' इत्यादि, एषां च भेदो रूढिगम्यः (वृ०प०४८३) ५०. पंके जाए जले संवुडे नोवलिप्पति पंकरएणं, नोव लिप्पति जलरएणं ५१. एवामेव जमाली वि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए, भोगेहिं संवुड्ढे 'कामेहि जाए' त्ति कामेषु-शब्दादिरूपेषु जात: 'भोगेहिं संवुड्ढे' त्ति भोगा--गन्धरसस्पर्शास्तेषु मध्ये संवृद्धो-वृद्धिमुपगतः (वृ०प ० ४८३) *लय : हो म्हारा राजा रा गुरुदेव १. २५-४१ तक की जोड़ वृत्ति के आधार पर की गई है। अंगसुत्ताणि में यह पाठ नहीं है। केवल २६ वीं गाथा का संवादी पाठ वहां है, पर वह भी वृत्ति से मिलता नहीं है। वृत्ति में पाठ लिया है-"मंजुमंजुणा घोसेणं अप्पडिबुज्झमाणे" जबकि अंगसुत्ताणि का पाठ है-"मंजुमंजुणा घोसेणं आपडिपुच्छमाणे । २८४ भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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