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१६. मूल सहित ते दर्भ कहीजं, मूल समिध इंधन वलि शाखा मोड़ी,
२०. जिहां निज ओरे तिहां आयनें, भाजन कावड़ थाप जी । स्थान देवाचन प्रति पूंजी ने लीपे शुद्ध करि आप जी ॥ नैं,
२१. दर्भ अ वलि कलश ग्रही कर, गंगा महानदी आय जी । जल मज्जन ते जल करिनें तनु, शुद्ध मात्र कर ताय जी ॥
२२. जलकीडं तनु शुद्ध की पिण, जल करि अभिरत प्रीत जी । जल अभिषेक पाणी नों भरवो, साचवतो वर रीत जी ॥
२३. आयंते जल फर्श करण थी, परम सुचि थइ देव
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रहित कुछ जान जी। ग्रहण करें पान जी ॥
२४. कलश मां के दर्भ
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गर्भित थे. तेह ग्रही निज हाथ जी। पाठांतर नों अर्थ कह्यो ए, दर्भ कलश किहां आत जी ||
२५. महानदी गंगा थी
चोखे असुनि करि दूर जी । पितर नैं, जलांजली कृत भूर जी ॥
उतरे, निज ओरे दर्भ कुशे वालु करि वेदी, देवार्चन स्थान
२९. सरए निमंथन काष्ठे करि, अरणि काण्ड अग्नि पाड़ वलि अग्नि संधुकी, ईंधन काष्ठ
४०६ भगवती-जोड़
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आवेह जी । रचेह जी ॥
२७. अग्नि उजाली वलि अग्नि नैं, दक्षिण सप्त अंग स्थाप ते आगल, कहिये नाम २८. सकथा वानप्रस्थ ने आगम, उपधि प्रसिद्ध
वल्कल स्थानक ज्योति स्थान ए, अथवा पात्र नों स्थान जी ॥ २६. सय्या भंड ते सय्या उपकरण, वलि कमंडल जेह जी । दंड दारु ते दंड कहीजै, जीव सहित निज देह जी ॥
घसेय जी । घालेय जी ।।
पासे देख जी । विशेख जी ॥ ए जान जी ।
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३०. मधु घृत तंबूल करीने अग्नि प्रतं होमंत जी। चरू चढावे वलिद्रव्य रांधी, ए निज मत नों पंथ जी ॥
१६. समिहाओ य पत्तामोडं च गिण्हइ
'दब्भे य' त्ति समूलान् 'कुसे य' त्ति दर्भानेव निर्मूलान् 'समिहाओ य' त्ति समिधः काष्ठिकाः 'पत्तामोडं च' तरुशाखामोटितपत्राणि । ( वृ० प० ५२० ) २०. जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किड-संकाय, उवेता वैदि देई बहुता उलेज्ज करे
'वेद' वैदिकां देवार्चनस्थानं वर्द्धनी बहुकरिकाको प्रयुक्त इति वर्द्धयति प्रमार्जयतीत्यर्थः ( वृ० प० ५२० ) २१. दग्भकलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गंगं महानदि ओगाहेइ, ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेइ
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'जलमजणं ति जलेन हा ०१० ५२०) २२. जलकीड करेइ, करेत्ता जलाभिसेयं करेइ
'जलकीड' ति देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं 'जलाभिसेयं' ति जलक्षरणम् (बु० प० ५२० ) २३. आयंते चोक्खे परमसुइभुए देवय- पिति कयकज्जे
'आयंते' त्ति जलस्पर्शात् 'चोक्खे' त्ति अशुचिद्रव्यापगमात् किमुक्तं भवति परमसूदए' ति 'देवपपकयकज्जे' त्ति देवतानां पितॄणां च कृतं कार्यं - जलांजलिदानादिकं येन स तथा (बु०प०५२० ) २४. दब्भकलसाहत्थगए दमकलगए
( वृ० प० ५२० ) २५. गंगाओ महानदीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरिता जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि य कुसेहि य वालुयाएहि य वेदि रएति,
२६. एवं महेद्र महेता अग पाडे, पाडेत्ता अम्मिसंधुक्के, संयुक्ता समिहाकट्ठाई पवि 'सरएवं अरणि महे' ति 'सर' नियतका 'अरणि' निर्मवनीयकाष्ठं 'मनाति' पयति ( वृ० प० ५२० ) २७. बग्गिाले उजालेता अग्गित दाहिने पासे सत्तंगाई समादहे, तं जहा
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२८,२६. सकहं वक्कलं ठाणं, सिज्जाभंडं कमंडलुं । दंडदा तप्पाणं, अहे ताइं समादहे ॥
तत्र सकथा - तत्समय प्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थानंज्योतिः स्थानं पात्रस्थानं वा शय्याभाण्डं शय्योपकरणं दण्डदारु - दण्डकः आत्मा-प्रतीत इति (बृ० १० ५२० ) ३०. महुणा य घएण य तंदुलेहि य अरिंग हुणइ, हुणित्ता साहे
'चरुं साहेति' त्ति चरुः -- भाजनविशेषस्तत्र पच्यमान द्रव्यमपि चरुरेव तं चरुं बलि मित्यर्थः 'साधयति' रन्धयति (बु० प० ५२० )
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