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________________ १४. तब क्षत्रियकुंड ग्राम नगर विषे, सिंघाटक त्रिक चउक्क । चच्चर यावत बहु जन बोलता, एक-एक नैं वक्क ।। १५. जिम उववाइ - उपंगे' आखियो, जावत इम पन्नवेह | तेह विषे ए फुन दाख्यो तिको, लेश थकी निसुणेह ॥ सोरठा वर्ण । जन समुदाय, बोल ते अव्यक्त ध्वनि कलकल तेहिज ताय, वचन विभागज लाभते ॥ १६. जन- व्यूह १७. जन - ऊम्म ए जान, लोक तणं संवाध जन उत्कलिका मान, अति लघु जे १८. जन - संन्निपातज सोय, बहु जन नुं अवलोय, अपर अपर मिलवूं जे १९. वहु जण मांहोमांहि, इम आख वलि इम भाखै ताहि, प्रगट पर्यायज जे । समुदाय ते ॥ *लय : साधुजी नगरी आया सदा मला रे १. ओ० सू० ५२ २३८ भगवती-जोड़ Jain Education International स्थानक इक थकी । स्थानके ॥ थी । सामान्य वचन करि ॥ थी अनुक्रम २०. एहिज अर्थ जु दोय, पर्याय थी कहिय छै अवलोय, २१. *इम पन्नवेद कहितां विशेष एवं परुवेइ तेह प्ररूपणा २२. इम निश्च देवानुप्रिया ! धर्म नी आदि तणां करणहार २३. भला मैं पधारया हो श्री महावीरजी, जगत उधारण जिहाज । पूर्ण ज्ञान दर्शन करि परिवर्या जयवंता जिनराज ॥ माहणकुंड ग्राम जेह । बहुसाल चैत्य विषेह ॥ इहां जान शब्द में जान अवग्रह प्रति ग्रही संजम तप करी, आतम भावित मान ।। २६. ते भणी महाफल देवानुप्रिया ! निश्च करिने न्हाल | तथारूप अरिहंत तणो वलि, भगवंत नों सुविशाल ॥ २७. जिम उववाई उपंग विषे का, जाव इक दिशि साहमा जाय । सूत्र उवाई में जे आखियो, ते निसुणो चित ल्याय । २४. देखणहार प्रभु सर्व वस्तु नां, नगर ने बाहिर छे भलुं, २५. यथाप्रतिरूप जाव विचरे प्रभु, । चित्त लगाई करि । सांभलो ॥ २८. नाम गोत्र जिन नों सुणवे करी, मोटो फल छै तास । तो स्यूँ कहियो सनमुख गमन नों, इहां जयणा सुविमास || २६. वंदन स्तुति करवा नुं वलि, नमस्कार शिर नाम । प्रश्न पूछा तो बलि कहिवो किसुं, मोटो फल गुण धाम ।। थी, जन कहै मांहोमाय । करता जन समुदाय ॥ श्रमण भगवंत महावीर । थे. जाय सर्वज्ञ सधीर ॥ १४,१५ त बत्तियडगामे नवरे सिघाउन-टिकचक्क- चच्चर- जाव (सं० पा० ) बहु जणसद्दे इ वा जाव एवं भासइ १६. जणवूहे इ वा जणबोले इ वा जणकलकले इ वा 'जनव्यूहः ' जनसमुदाय: बोल:- अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकल:- स एवोपलभ्यमानवचनविभागः (बृ० प० ४६३) १७. जणुम्मी ६ वा जलियावा अम्मिसम्बाधः उत्कलिका-लघुतर समुदायः ( वृ० प० ४६३) १८. जणसण्णिवाए इ वा संनिपातः - अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं ( वृ० १०४६३) १९. बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ, आख्याति - सामान्यतः भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः, ( वृ० प० ४६३) २०. पर्यायतः क्रमेणाह (बु०प०४६३) २१. एवं पण्णवेइ, एवं परुवेइ, २२. एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सब्वण्णू २४. सव्वदरिसी माहण कुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए २५. अडिग ओगिरिता संजणं तवसा अपागं भावेमा विहर। २६. तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं २७. जहा ओववाइए [ सूत्र ५२] जाव एगाभिमुहे 'जहा उववाइए' त्ति, तदेव लेशतो दर्श्यते( वृ० प० ४६३) २८, २६. तं महत्फलं खलु भो देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं For Private & Personal Use Only - नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदण मंसणपणिपवासणाए ( ओवाइयं सू. ५२ ) www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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