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११. जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता,
अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता १२. संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
(श० ६/२२३)
११. जिहां पूर्णभद्र चैत्य छ, तिहां आवै आवी ताय ।
यथायोग्य अवग्रह प्रते, ग्रहै ग्रही जिनराय ।। १२. संजम नै फुन तप करी, आतम प्रति अवधार।
भावंता ते वासिता, विचरै जिन जगतार ।। भवि ! सांभलो रे,
सांभलज्यो जमाली नुं चरित्त, वीतराग नां वच अवितत्थ ॥ (ध्रुपदं) १३. ते अणगार जमाली ने तिहवार, तेह अरस आहारे करि धार।
भवि ! सांभलो रे। हींग प्रमुख नों नहिं संस्कार, ते कहियै अरस रस-रहित आहार ।
भवि ! सांभलो रे॥ १४. पुराणपणां थी गयो रस जास, विरस आहार कहियै छै तास ।
अंत ते अरसपण करि तेह, सर्व धान्य में अंत वर्तेह ।।
१३. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहि 'अरसेहि य'
'अरसेहि य' त्ति हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतत्वादविद्यमानरसः
(वृ० ५० ४८६)
१५ तेहिज अरस जीम्यां पछै जोय, ऊबरियो वा वासी होय ।
ते प्रकर्षे करि अंत वर्तेह, प्रांत आहार कहीजै जेह ।।
१६. लुक्ख अने तुच्छ अल्प आहारेह, कालातिक्रांत करीनै तेह ।
भूख तृषा लागी तिण काल, आहार-पाणी अणपाम्ये न्हाल ॥
१७. प्रमाणातिक्रांत करेह, मात्रा थी अधिक भोगविय जेह।
शीतल जल भोजन करि न्हाल, अन्यदा दिवस किण काल ।।
१८. शरीर विषे विस्तीर्ण जेह, रोग ते व्याधि करी पीड़ेह ।
तेहिज आतंक स्पष्ट दीसंत, जीवितव्य नै कष्टकारी अत्यंत ॥
१४. विरसेहि य अंतेहि य
'विरसेहि य' त्ति पुराणत्वाद्विगतरस: 'अंतेहि य' त्ति अरसतया सर्वधान्यान्तवत्तिभिर्वल्लचणकादिभिः
(वृ० प० ४८६) १५. पंतेहि य
'पंतेहि य' त्ति तैरेव भुक्तावशेषत्वेन पर्युषितत्वेन वा
प्रकर्षणान्तवत्तित्वात्प्रान्तः (वृ० प० ४८६) १६. लूहेहि य, तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य
'लू हेहि य' त्ति रूक्षः 'तुच्छेहि य' त्ति अल्पैः 'कालाइक्कतेहि य' त्ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तः
(वृ० प० ४८६) १७. पमाणाइक्कतेहि य पाणभोयणेहि अण्णया कयाइ 'पमाणाइक्कतेहि य' त्ति बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः
(वृ० प० ४८६) १८. सरीरगंसि विउले रोगातं के पाउन्भूए
'रोगायके' त्ति रोगो--व्याधिः स चासावातङ्कश्च
कृच्छ जीवितकारीति रोगातङ्कः (वृ० प० ४८६) १६. उज्जले विउले
'उज्जले' त्ति उज्ज्वलो-विपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितत्वात् 'तिउले' त्ति त्रीनपि मनःप्रभृतिकानर्थान् तुलयतिजयतीति त्रितुलः
(वृ० ५० ४८६) २०. पगाढे कक्कसे कडुए
क्वचिद्विपुल इत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यापकत्वात्, 'पगाढ़े' त्ति प्रकर्षवृत्ति: 'कक्कसे' त्ति कर्कशद्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ट इत्यर्थः 'कडए' त्ति कटुकं नागरादि तदिव यः स कटुकोऽनिष्ट एवेति
(वृ० प० ४८६) २१. चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे
'चंडे' त्ति रौद्रः 'दुक्खे' त्ति दुःखहेतुः 'दुग्गे' त्ति कष्टसाध्य इत्यर्थः 'तिब्वे' त्ति तीव्र - तिक्तं निम्बादि द्रव्यं तदिव तीव्र: किमुक्तं भवति? 'दुरहियासे' त्ति दुरधिसह्यः
(वृ० प० ४८६)
१६. उज्जल सुख-बिंदु करि रहीत, तिउले कहितां त्रितुल संगीत ।
मन वच तनु नां अर्थ प्रतेह, तुले कहितां जोपै तेह ।।
२०. किहांइक विपुल सकल तनु व्याप, प्रकर्षे करि गाढ संताप।।
कर्कश द्रव्य जिम दृढ कठोर, कटुक वस्तु जिम अनिष्ट जोर ।।
२१. चंड रौद्र दुक्खे दुख हेतु, दुर्गम तेह दुसाध्य कहेतु ।
तीव्र नींव नी पर अवलोय, दुक्खे करी अहियासंता सोय ।।
* लय : मेरी खिण गई, लाखोणी रे मेरी खिण १. अंगसुत्ताणि भाग २ श० ६।२२४ में तिउले के स्थान पर विउले पाठ है । वहां 'तिउले' पाठान्तर में रखा गया है।
२८८ भगवती-जोड़
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