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| ढाल : १६६
दूहा १. तिण अवसर प्रभु वीर जिन, ऋषभदत्त नैं ताय ।
देवानंदा नै बलि, मोटी परषद मांय ।। १. अति मोटी परषद विधे, ऋषि परषदा माय ।
जाव परिषदा पडिगया, धर्म सुणी नैं ताय ।। ३. जाव शब्द में अर्थ ए, मुनि-परषदा मांय ।।
वाचंयम मुनि नाम है, वचन गुप्त अधिकाय ।।
४. यती परषदा नैं विषे, धर्म क्रिया रे मांय ।
यत्नवान अतिही तिको, यती अर्थ कहिवाय ॥ ५. अनेक सय नी परिषदा, अनेक सय परिमाण । तास वृंद परिवार जसु, इत्यादिक पहिछाण ।। *प्रभु मोरा शोभ रह्या मुनिगन में, सुर नर परिषद वृंदन में ।।
(ध्रुपदं) ६. ऋपभदत्त ब्राह्मण तिण अवसर, जिन वच सुण हरष्यो मन में। ७. अधिक संतोष पायो हिरदा बिच, ऊठी ऊभा ह तन में॥
१,२. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स
देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव (सं०
पा०) परिसा पडिगया (श० ९/१४६) ३. यावत्करणादिदं दृश्यमुणिपरिसाए
(वृ०प० ४६०) तत्र मुनयो-वाचंयमाः वृ०प० ४६०) ४. जइपरिसाए
यतयस्तु-धर्मक्रियासु प्रयतमानाः (वृ० प०४६०) ५. अणेगसयाए अणेगसगयवंदाए अणेगसयवंद परियालाए
अनेकानि शतानि यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशत । प्रमाणानि वृन्दानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्यै ।
(वृ० प० ४६०) ६,७. तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ
महावीरस्स अंतियं धम्म सोच्चा निसम्म हद्वतुढे
उट्ठाए उठेइ, ८.६. समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं
करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वदासी-एवमेयं भंते !
तहमेयं भंते ! १०,११. जहा खंदओ जाव (सं० पा०) से जहेयं तुब्भे
वदह त्ति कटु उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमति। अवक्कमित्ता सयमेव आभर
णमल्लालंकारं ओमुयइ, १२,१३. सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता जेणेव .
समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छई..."वंदइ नमसइ, बंदित्ता नमंसित्ता
एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए, १४ पलिते गं भंते | लोग. आलित-लिने ।
लोए जराए मरणेण य । १५. एवं एएणं कमेणं जहा खंदओ तहेव पब्वइओ।
(पा० टि०७)
नतीन प्रदक्षिण देई प्रभ ने, वंदन स्तुति करि प्रणमें ।। ६. वीर प्रतै कहै हे प्रभु ! इमहिज, सत्य वचन तुझनां जग में ।
१०. जिम खंधक कह्यो तिम यावत, ए तुम्है कहो छो तिमज गमे ।। ११. एम कही जई कूण ईशाणे, आभरण माल्य उतार वमे ॥
१२. स्वयंमेव लोच पंच मुष्टी करि, वोर पे आय वंदै प्रणमें।
पच मुष्टा कार, वार प आय वद प्रणम ॥ १३. कर जोड़ी कहै जीव लोक प्रभु ! समस्तपणे ए ज्वलित धमे ॥
१४. प्रकर्षे करि ज्वलित जीव ए, जरा मरण करि अधिक भमे ॥
१५. जिम खंधक तिम दीक्षा लीधी, ऋषभदत्त मुनि चरण रमे।
१६. जाव सामायक आदि देई ने, अंग इग्यार भण्यो हिय में ॥ १७. जाव बहु चौथ छट्ठ अट्ठम तप, दशम तप करि आत्म दमे ॥ १८. जाव विचित्र तपे करि आतम, भावित वासित शासन में ।।
१६,१७. जाव सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ
अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थछट्टट्ठम-दसम १८. जाव (सं० पा०) विचित्तेहिं तवोकम्मे हि अप्पाणं
भावेमाणे
*लय : हाजरी मैं स्वामीनाथ हमेशा याद करू
श० ६, उ० ३३, ढाल १९६ २३५
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