SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६. सिद्धिमग्ग सविधान, हितार्थ प्राप्ति उपाय जे । मुत्तिमग्ग महिमान, अहित-विच्युति उपाय जे ॥ १०. निजाणमग्गे ताय, सिद्ध क्षेत्र तेहनै विषे । जावा तणो उपाय, निग्रंथ-प्रवचन जाणवू ॥ ११. निव्वाणमग्गे न्हाल, सकल कर्म नां विरह थी। उपनो सुख सुविशाल, तेह तणोंज उपाय ए॥ १२ अवितह कहितां सोय, कालांतर पिण अनपगत । तथाविध अवलोय, अभिमत प्रकार एह छै ।। ६. सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे 'सिद्धिमग्गे' हितार्थप्राप्त्युपाय: 'मुत्तिमग्गे' अहितविच्युतेरुपाय: (वृ० प० ४७१) १०.निज्जाणमग्गे सिद्धिक्षेत्रगमनोपायः (वृ० प० ४७१) ११. णिव्वाणमग्गे सकलकर्मविरहजसुखोपायः (वृ० १० ४७१) १२. अवितहे कालान्तरेऽप्यनपगततथाविधाभिमतप्रकारम् (वृ० प० ४७१) १३. अविसंधि प्रवाहेणाव्यवच्छिन्नं (व०प० ४७१) १४. सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे, एत्थं ठिया जीवा सिझंति, बुझंति मुच्चंति १५. परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति १३. अविसंधि' सुवदीत, प्रवाह करी विच्छेद नहीं। तथा संदेह रहीत, अर्थ अविसंदिद्ध नं ।। १४. सह दुख प्रतीक्षण मग्ग, एह प्रवचन विषे जिके । जीवा रह्या उदग्ग, सिझै बुज्झै मुच्चवै ।। १५. हुवै शीतलीभूत, अंत करै सहु दुख तणो। जाव शब्द में सूत, कह्या आवसग थीज ए॥ १६. *सर्प तणी पर एकांत-निश्चय, दृष्टि-बुद्धि अवलोय । इण निग्रंथ प्रवचन विषे, चारित्र पालण सोय ।। सोरठा १७. अहि नी आमिष काज, एकान्ता-एकनिश्चया। दृष्टि हुवै निर्व्याज, तिम चरण पालण इक दृष्टि-बुद्धि ।। १८. *जेह पाछणा नी परै, एकांत जे समान धारा, जिम क्रिया जसु, जे चरण विषे सुविधान ।। १६. जिम लोह नां जव चाबिवा, तिम निग्रंथ प्रवचन सार । निरअतिचारपण पालिवं, दुक्कर चरण उदार ॥ १६. अहीव एगंतदिट्ठीए अहेरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा (एकान्ता सा) दृष्टि:-बुद्धिर्यस्मिन् निर्ग्रन्थप्रवचने चारित्र पालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम् (वृ० प० ४७१) १७. अहिपक्षे आमिषग्रहणकतानतालक्षणा एकान्ता--- एकनिश्चया दृष्टि:-दृग् यस्य स एकान्तदृष्टिक: (वृ०प० ४७१) १८. खुरो इव एगंतधाराए एकान्ता-उत्सर्ग लक्षणकविभागाश्रया धारेव धाराक्रिया यत्र तत्तथा (वृ० ५० ४७१) १६. लोहमया जवा चावेयव्वा लोहमया यवा इव चर्वयितव्याः, नम्रन्थं प्रवचनं दुष्करमिति हृदयं (वृ० ५० ४७१) २०. वालुयाकवले इव निस्साए वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया प्रवचनमिति (वृ० प० ४७१) २१. गंगा वा महानदी पडिसोयं गमणयाए गंगा वा-- गंगेव महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गंगेव दुस्तरं प्रवचनमिति भावः। (वृ०प० ४७१) २२. महासमुद्दो वा भुयाहिं दुत्तरो एवं समुद्रोपमं प्रवचनमपि (वृ०प० ४७१) २०. सार रहित जिम कवल वालु नां, निग्रंथ प्रवचन तेम । विषय तणां सुख स्वाद रहित छै, चरण धरण सुख खेम ।। २१. महानदी गंगा मैं साहमें, स्रोते दुखे गमन । तिम संजम मार्ग आचरतां, दुस्तर है प्रवचन ।। २२. महासमुद्र जिम भुजा करीन, तिरणो दुक्करकार । तिम प्रवचन वर चरण पालवं, दुस्तर अधिक अपार ।। १. जयाचार्य को प्राप्त आदर्श में अविसंधि और अविसं द्धि—ये दो पाठ में रहे होंगे । अंगसुत्ताणि ।।१७७ में यहां एक ही पाठ है-अविसंधि । इस पाठ में पाठान्तर की भी कोई सूचना नहीं है । *लय : सीता आवे रे धर राग। श०६, उ० ३३, ढा०२०८ २५७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy