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________________ ११. पूर्व सहित ए पाछली कांइ, सुरी सहस्र चालीस। तुटित इसे नामे करी जी, कांइ वर्ग' कह्यो जगदीश ॥ ११. एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए। (श० १०६६) 'से तं तुडिए' ति तुडिकं नाम वर्ग: (वृ० ५० ५०५) १२. पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया १२. हे भदंत ! समर्थ अछै कांइ, चमर असर नों इंद। राजा असुरकुमार नों जी काइ, महापुन्यवंत सोहंद ॥ १३. चमरचंचा नामे भली कांइ, राजधानी रै माय । सभा सधर्मा नै विषे जी कांइ, चमर सिंघासण ताय । १४. तुटित वर्ग साथे तिहां कांड, देव संबंधी भोग । भोगवतो थको विचरवा जी काइ, समर्थ चमर प्रयोग ? १५. जिन कहै अर्थ समर्थ नहीं कांइ, प्रभु ! किण अर्थे ए वाय । चमर सुधर्मा भोग ने जी कांइ, भोगविवा समर्थ नांय? १३. चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि १४. तुडिएणं सद्धि दिव्वाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरि त्तए? १५. नो इणठे समठे। (श० १०॥६७) से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चइ -नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए? १६. अज्जो! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचाए रायहाणीए १७. सभाए सुहम्माए, माणवए चेइयखंभे १८. वइरामएसु गोल-बट्ट-समुग्गएसु बहुओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिठ्ठति, गोलकाकारा वृत्तसमुद्गका: गोलवृत्तसमुद्गकास्तेषु (वृ० प० ५०५) १६. हे आर्यो ! इम जिन कहै कांइ, चमर असुर नों राय । चमरचंचा नामे भली जी कांड, राजधानी रै मांय ।। १७. सभा सुधर्मा ने विषे कांड, माणवक इण नाम । चैत्य स्तंभ छै तिण विषे जी काइ, डाबा बहु अभिराम ।। १८. वज्र मांहि ते डाबड़ा कांइ, वृत्त गोलकाकार । रहै तिहां जिन नी बहू जी काइ, दाढा प्रमुख उदार ।। सोरठा १९. 'जिन नी दाढा होय, तो छ एह अशाश्वती। असंख काल अवलोय, तेहनी स्थिती कही नथी । २०. जिन-दाढा आकार, पुद्गल स्थित्या तेहनें। ___कहि जिन-दाढा सार, तो तसु कहियै शाश्वती ॥ २१. सुरियाभादिक सार, तसु पिण जिन-दाढा कही। ए दाढा आकार, पुद्गल-स्थित्या तेह छै॥ २२. जिन-दाढा तो जोय, इंद्र विना अन्य सुर तणे । ____ कर नहिं आवै कोय, प्रवर न्याय अवलोकिये । २३. सौधर्म नै ईशाण, चमर वली चिहुं इंद्र नैं। जिन-दाढा पिण जाण, पिण छै तेह अशाश्वती ॥' [ज० स०] २४. * चमर असुर नां राय नैं कांइ, अन्य बहु असुरकुमार। देव अनैं देवी बली जी कांइ, ए जिन-दाढा विचार । २५. चंदन आदि सुगंध थी कांइ, अछै अरचवा जोग । वंदन वच स्तुति जोग छ जी काइ, नमण करेवा जोग ।। २४,२५. जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो अण्णेसि च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ नमसणिज्जाओ 'अच्चणिज्जाओ' त्ति चन्दनादिना 'बंदणिज्जाओ' त्ति स्तुतिभि: 'नमसणिज्जाओ' प्रणामतः (वृ० ५० ५०५) २६. पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ 'पूयणिज्जाओं' पुष्पः (वृ० ५० ५०५) २६. वलै पूजवा जोग छै कांइ, पुष्पादिक थी एह । बलि सत्कारण जोग छै जी काइ, वलि सन्मान करेह ।। *लय : अब लगज्या प्राणी ! चरण प्रभु तण जी १. एणी पर सपूर्वापर संघाते चालीस सहस्र देवी आठ सहस्रगुणां करिय तिवारे बत्तीस कोड़ देवांगना थावे तेहने तुटित वर्ग कहिये । (श. १०.७०५ ढाल २२२ ३३७ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003619
Book TitleBhagavati Jod 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages490
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size14 MB
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