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ए तो २११. सेवन
२६६. * दंड-पाणि पास-पाणि
ए केवा जी कांइ ए तो आतम रक्षक देव, २१७. नील पीत फन रक्त,
"
चर्म दंड नं खड्ग, धारक माणी जी, इक चित आणी आतमरस भाव प्रतं ठाणी । ए तो आतमरक्षक देव, २९. निज
शक्र नां पहिछाणी || स्वामी प्रति जेह, गोपवी ने रज़िया । वींटी बैठा तेह, गुप्त पालक पालक कहिया जी, चित गहगहिया,
कहिया ।
आतमरक्षक
जिम पालि तेम चिहुं दिश रहिया। देव सेव तत्पर वहिया ।। गुण करि जुक्त जुता आंतरा रहित, पालि जेहनी
नो
।
कहिये । लहिये।
इम
पिण
देख,
एम.
अधिकेवा,
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देवा |
खड्ग-पाणी रज्जु नीं ए केवा | सुर सामधर्म सेवग जेवा । सुराधिप नी सेवा ॥ जाणी । पाश धारक माणी ॥
चाप चारू
विच
जेहनी लहियै जी, अति हरप हिये,
तसु युक्तपालिका उच्चरिये ।
शक्र आणा समय आचार
हिये ॥ भणी । थुणी ।
विनय करवेज पणी, किंकर नीं पर तिष्ठैज गुणो ।
"
देव, सबल तस शक्र धणी ॥ सुधर्मा सभा ने विषे पूर्व द्वारे प्रवेश करीने जिहां मणिपीठिका छैतिहां आव अने देखें छतं जिन दाढा ने प्रणाम करें करीनें जिहां माणवक चैत्य स्तंभ, जिहां वज्रमय गोल वृत्त डाबडा, तिहां आवी नैं डाबडा प्रते ग्रहै, ग्रही नं उघाड़े, उघाडी ने लोमहस्त पूंजणी करिकै पूंजी ने, उदक धारा करिकै सींची ने, गोशीर्ष चंदने करी लोपे, तिवार पर्छ प्रधान गंध मात्य करिकै अर्चे, धूप देव तदनंतर वली वज्रमय गोल डाबडा ने विषै प्रक्षेप, निक्षेपी ने तेहने विषे पुष्प, गंध, माल्य, वस्त्र, आभरण आरोपं । तिवार पर्छ लोमहस्त करिकै माणवक चैत्य स्तंभ पूंजी नं उदक धारा करिक सींची में चंदन चर्चा] पुष्पादि आरोप चढावे अनं दान धूपदान करें कने जहां देव-सिंहासन प्रदेश तहां आवी ने मणिपीटिका ने सिंहासन में लोमहस्त करिकै प्रमार्जनादि रूप पूर्ववत् अर्चना करें करीनं जिहां मणिपीठिका जहां देव सेज्या तिहां आधी नं मणिपीठिका अनं देवसेज्या नीं द्वारवत अर्चनिका करै । तिवार पर्छ पूर्वे कही तिण प्रकार करिकैहीज क्षुल्लक इंद्रध्वज विषे पूजा करें 1 तिवार पर्छ जे जिहां चोप्पालक नाम प्रहरण कोश तिहां आवी ने लोमहस्त करिकै परिध रत्न प्रमुख प्रहरण रत्न प्रत पूंज, पूंजी ने उदक धारा करके सींचे चंदन चर्चा पुष्पादि आरोपण धूपदान करें।
तिवार पर्छ सुधर्मा सभा ने बहु मध्य देश भागे अर्चनिका पूर्ववत् करें, करीनें सुधर्मा सभा ने दक्षिण द्वारे करी आवी ने तेहनीं अर्चनिका पूर्ववत् करें । तिवार पर्छ दक्षिण द्वार की धकी आगे जिमनि सिद्धान्तन थकी नीकलती दक्षिण द्वारादिक दक्षिण नंदा पुष्करणी पर्यवसान पुनरपि प्रवेश * लय : म्है तो जास्यां जास्यां वंदन वीर
३७५ भगवती-जोड़
ए तो आतमरक्षक देव, ३००. प्रत्येक प्रत्येक पेख. आचर कर लेख, करवंज थुणी जी, तसु की ए तो आतमरक्षक
२६६. दंडपाणिणो खग्गपाणिणो पासपाणिणो
२६७. नीलपीय रत्त चाव- चारु चम्म-दंड-खग्ग- पासधरा आयरक्खा ( राय० सू० ६६४ )
(राय० सू० ६६४)
२८. रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिया (राय० सू० ६६४ )
२१.
सया
(राय० ० ६६४) युक्ताः ततया उषितास्तथा युक्ता: परस्परांसंवृद्धा न तु वृहदन्तरा पालिर्येषां ते युक्तपालिका: (राय० ० प० २७० )
३००. पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूया इव चिट्ठति ( राय० सू० ६६४ )
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सभायां सुधर्मायां पूर्वद्वारेण प्रविशति प्रविश्य वव मणिपीठिका तत्राऽऽगच्छति आलोके च जिनसक्थां प्रणामं करोति, कृत्वा यत्र माणवकचैत्यस्तम्भो यत्र वज्रमयाः गोलवृत्ताः समुद्गकाः तत्रागत्य समुद्गकान् गृह्णाति गृहीत्वा विघाटयति विघाटय च लोमहस्तकं परामृश्य तेन प्रमा उदकधारया अभ्युक्ष्य गोशीर्षचन्दनेनानुलिम्पति ततः प्रधानन्यमात्परयति तदनन्तरं भूयोऽपि वज्रमदेषु मोवृतसमुद्गेषु प्रतिनिक्षिपति, प्रतिनिक्षिप्य तेषु पुष्पगन्धमाल्यवस्त्राभरणानि चारोपयति, ततो लोमहस्त केन माणवत्यस्तम्भं प्रमाज्यं उदकधारयाम्पुक्षणचन्दनचर्चाध्यायारोपणं धूपदानं करोति कृत्वा सिहासनप्रदेशमागत्य मणिपीठिकायाः सिंहासनस्य च सोमस्तकेन प्रमार्जनादिरूपां पूर्ववदनिकां करोति, कृत्वा यत्र मणिपीठिका यत्र च देवशयनीयं तत्रोपागत्य मणिपीठिकाया देवशयनीयस्य च द्वारवदर्चनिकां करोति, तत उक्तप्रकारेणैव क्षुल्ल केन्द्रध्वजे पूजा करोति, ततो यत्र चोप्पालको नाम प्रहरणकोशस्तत्र समागत्य लोमहस्तकेन परिचरत्नप्रमुखानि प्रहरणरत्नानि प्रमार्जयति प्रमाज्यं उदकधारयाऽभ्युक्षणं चन्दनचर्याम् पुष्पायारोपणं धूपदानं च करोति ।
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