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प्रथम अध्याय
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पड़ता है। योगी जन इस युद्ध को अत्यन्त सावधान होकर देखते हैं और दृढ़ता पूर्वक उसमें भाग लेते हैं । यही कारण है कि वे अन्त में अपने सम्पूर्ण शत्रुनों का विनाश करके अानन्त सुख के भागी बनते हैं।
__ लक्ष्य जितना स्थूल होता है उसका भेदना उतना ही सुगम होता है । अत्यन्त सूक्ष्म लक्ष्य को भेदना अत्यन्त कौशल का सूचक है । वाह्य शत्रु स्थूल हैं और स्थूल लाधनों से ग्रंथात् तोप तलवार श्रादिसे उनका दमन कियाजाता है,इसलिए उनका दमन नरल है और उस में केवल पाशविक बल की आवश्यक्ता है । किन्तु आन्तरिक शत्रु अत्यन्त सूक्ष्म हैं और उन्हे दमन करने के साधन और भी सूक्ष्म हैं;अतएव उसके लिए प्रात्मिक बल की अपेक्षा रहती हैं । इसीलिए सूत्रकार ने प्रात्म-दमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है।
भौतिक युद्ध में विजय पाने से राज्य की प्राप्ति है-थोड़े से भूमिभाग पर विजेता शासन करता है किन्तु आध्यात्मिक युद्ध का विजेता तीनोलोक का शासक बन जाता है। भौतिक युद्ध का विजेता, क्षणिक ऐश्वर्य प्राप्त करता है, आध्यात्मिक युद्ध के विजेता को शाक्षात ईश्वरत्व प्राप्त होता है। भौतिक युद्ध से लाखों शत्रुओं का दमन करने के पश्चात् करोड़ो नये शत्रु बन जाते है, आध्यात्मिक युद्ध के विजेता का शत्रु संसार से कोई नहीं रहता । भौतिक विजय, अन्त में घोर पराजय का साधन बनती है, आध्यात्मिक विजय चरम विजय है-इस विजय को प्राप्त कर चुकने के पश्चात् कभी पराजय का प्रसंग नहीं आता। भौतिक विज्ञाय के लिए लाखों-करोड़ों प्राणियों के रक्त की धारा बहाई जाती है अतएव उसले आत्मा अत्यन्त मलीन होता है, श्राध्यात्मिक विजय के लिए मन-वचत-काय से पूर्ण अहिंसा का पालन करना पड़ता है-प्रारसी मान पर वन्धुभाव रखना होता है और उससे आत्मा निर्मल बनता है। भौतिक युद्ध के विजेता के सामने लोग बिना इच्छा के नतमस्तक होते हैं और प्राध्यात्मिक युद्ध के विजेता के समक्ष न केवल राजा-महाराजा और चक्रवर्ती ही हार्दिक भक्तिभाव ले नतमस्तक होते हैं अपितु देवराज इन्द्र भी उलका क्रीत-दास बन जाता है । इसलिए सूत्रकार ने प्रात्मदमन को श्रेष्ठ विजय बतलाया है। . . भौतिक विजय से उन्मत्त होकर विजेता जगत में अन्याय और अत्याचार का उदाहरण उपस्थित करता है. आध्यात्मिक युद्ध का विजेता अपनी वाणी और अपने श्राचरण के द्वार नीति, धर्म और सदाचार की स्थापना करके असंख्यात जीवों के कल्याण का कारण बनता है । भौतिक युद्ध का विजयी योद्धा दूसरों की स्वाधीनता का अपहरण करता है, उन्हें चूसता है और समाज में विषमता का विष-वृक्ष रोपता हैं किन्तु प्राध्यात्मिक युद्ध का विजयी सूरमा स्वयं स्वाधीनता प्राप्त करना है, दूसरों को स्वाधीन बनाता है और समता की सुधा का प्रवाह बहाना है । भौतिक विजय मनुष्य को अंधा बनाती है, प्राध्यात्मिक विजय से आत्मा अलौकिक मालोक का पुंज बन जाता है । भौतिक विजय ले मनुष्य की आत्मिक शक्तियां कुंठित हो जाती .