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मानते हैं। कोई इस शब्द का प्रयोग करें या न करें पर प्रायः सभी ने अपने उपास्य के रूप में, अपनी सैद्धान्तिक मान्यता के रूप में इसे स्वीकार किया है।
जैन शब्द 'जिन' शब्द से बना है। जो व्यक्ति ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों और रागद्वेषादि भावकर्मों को जीत लेता है, वह 'जिन' कहलाता है। ऐसे 'जिन' के द्वारा उपदिष्ट धर्म तथा दर्शन को जैनधर्म और जैनदर्शन कहते हैं। जैनदर्शन में प्रत्येक आत्मा कर्मों का नाश करके परमात्मा अथवा ईश्वर बन सकता है, किन्तु जैनदर्शनाभिमत ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं होता और न तो कभी अवतार लेता है और न कभी संसार में मोक्ष से लौटकर आता है। जो चार घातिया कर्मों को नष्ट कर लेता है वह अर्हन्त कहलाता है और अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाला सिद्ध कहलाता है। इसी सिद्ध दशा को जैनों ने ईश्वर भी कहा है।
वस्तुत: जैनदर्शन में ईश्वर को स्वीकार तो किया है, परन्तु जगत् के कर्ता-धर्ता के रूप में नहीं, जैसा अन्य जैनेतर दार्शनिक स्वीकार करते हैं। जैनदर्शन सृष्टि या जगत् को अनादि-निधन मानता है । कर्मों का फल देने के लिए भी उसे किसी माध्यम (ईश्वर आदि) की आवश्यकता नहीं है। यहाँ पर तो प्रत्येक आत्मा ईशत्व प्राप्त करने की शक्ति रखता है, और उसे प्राप्त कर मुक्त हो सकता है। यह मुक्ति ही जैनदर्शन में मोक्ष है। मोक्षमार्ग का उपदेश देनेवाला आप्त होता है और वह आप्त चार घातिया कर्मों को नष्ट करके ईश्वर कहलाता है। वह ईश्वर वीतरागी, पूर्णज्ञानी - सर्वज्ञ, राग-द्वेष तथा अज्ञान से रहित और आगम का उपदेष्टा होता है। जैन परम्परा में आप्तता के लिए सर्वज्ञ होना अनिवार्य माना गया है और धर्मज्ञता को सर्वज्ञता के ही अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन में ईश्वर / भगवान् को अनादि नहीं माना अपितु सादि माना है । भगवान् जन्मते नहीं, बनते हैं । भगवान् / ईश्वर एक नहीं अपितु अनन्त हैं ।
वर्तमान में भगवान् तीर्थंकर महावीर का शासन है। जो तीर्थंकर होते हैं, वे नियम से भगवान् / ईश्वर होते ही हैं, परन्तु जो भगवान् / ईश्वर हैं, वे तीर्थंकर नियम से बनते ही हों, - यह जरूरी नहीं है; क्योंकि तीर्थंकर अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी प्रत्येक काल में 2424 ही होते हैं, जबकि भगवान् / ईश्वर उस प्रत्येक काल में अनन्त हो जाते हैं, अर्थात् तीर्थंकर हुए बिना भी भगवान् / ईश्वर बना जा सकता है। जो भी आत्मा धर्म का आश्रय लेकर धर्मज्ञ है, वही सर्वज्ञ है, और जो सर्वज्ञ है वही भगवान् / ईश्वर / तीर्थंकर है । जैनदर्शन की सर्वज्ञता, आत्मज्ञता से फलित है अर्थात् आत्मज्ञ को ही सर्वज्ञ कहा है, जो सर्वज्ञ है, वही ईश्वर है ।
जैन मनीषियों ने गुणों के आधार पर अपने उपास्य को स्वीकार करने की बात कही है। जैनों का ईश्वर मानवता का चरमोत्कर्ष है। मानव के ऊपर ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। जैनदार्शनिक कहते हैं कि समीचीन पुरुषार्थ करने पर प्रत्येक आत्मा परमात्मा / ईश्वर / भगवान् बन सकती है। अब तक अनन्त आत्माएँ परमात्मा/भगवान् / ईश्वर बन चुकी हैं, बन भी रही हैं और बनती रहेगीं। इस प्रकार जैनदर्शन में किसी एक ईश्वर की
ईश्वर सम्बन्धी जैन अवधारणा :: 53
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