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उपपत्ति होती है। वे सिद्धान्तत: केवलाद्वैतवादी हैं, तथापि ईश्वर को सृष्टि का कर्ता एवं कर्मफल प्रदाता बताने में अपनी दृढ़ता व्यक्त करते हैं।
न्याय तथा वैशेषिक दर्शन
न्यायदर्शन का विषय न्याय का प्रतिपादन करना है। न्याय का अर्थ है- विभिन्न प्रमाणों के द्वारा अर्थ की परीक्षा करना। इन प्रमाणों के स्वरूप का वर्णन करने के कारण इस दर्शन को न्यायदर्शन कहते हैं। न्यायदर्शन के मानने वाले नैयायिक कहलाते हैं। 'विशेष' नामक पदार्थ की विशिष्ट कल्पना के कारण इस दर्शन का नाम वैशेषिकदर्शन प्रसिद्ध हुआ। कुछ बातों को छोड़कर अन्य अनेक बातों में न्याय और वैशेषिक दर्शनों में समानता पायी जाती है। इन दोनों दर्शनों का सम्मिलित नाम यौग है।
न्याय-वैशेषिक की दृष्टि में ईश्वर नित्य, मुक्त, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और इस जगत् का निमित्तकारण है। ईश्वर के अतिरिक्त इस दर्शन में अन्य योगियों की आत्माओं में भी सर्वज्ञत्व को स्वीकार किया गया है, पर वह ज्ञान अनित्य है। ईश्वर का ज्ञान नित्य
और अपरोक्षात्मक है। अपवर्ग की प्राप्ति ईश्वर के बिना सम्भव नहीं है और अपवर्ग में आत्मा के सभी आगन्तुक गुण हमेशा के लिए विनष्ट हो जाते हैं। ईश्वर का अस्तित्व इस दर्शन में शब्द और अनुमान प्रमाण का आश्रय लेकर सिद्ध किया गया है।
सांख्य तथा योग दर्शन
तत्त्वों की संख्या के कारण इस दर्शन का नाम सांख्य-दर्शन हुआ, किन्तु संख्या शब्द का दूसरा अर्थ है- विवेकज्ञान। प्राचीन सांख्यों ने ईश्वर को नहीं माना है, परन्तु कालान्तर में ईश्वर की सत्ता भी स्वीकार कर ली गई। सांख्य के निरीश्वरसांख्य और सेश्वरसांख्य – ऐसे दो भेद हो गये। सेश्वरसांख्य को ही योगदर्शन के नाम से कहा जाता है। सांख्यों का मत है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है तथा सब पदार्थों में सत्त्व, रज और तम - इन तीन गुणों का अन्वय पाया जाता है, इसलिए सब पदार्थ प्रकृति से उत्पन्न हुए हैं। सांख्य किसी पदार्थ की उत्पत्ति और विनाश को नहीं मानते हैं, परन्तु आविर्भाव और तिरोभाव को मानते हैं। सांख्यों के अनुसार प्रकृति केवल की है और पुरुष केवल भोक्ता
सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष ये दो ही तत्त्व हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग होने पर प्रकृति में क्षोभ पैदा होता है और महदादि क्रम से प्रकृति से इस जगत् की सृष्टि होती है, इसमें ईश्वर (पुरुष विशेष) की कोई आवश्यकता नहीं है। सृष्टि स्वाभाविक प्रक्रिया से होती है, जैसे वत्सविवृद्धि के लिए दूध की प्रवृत्ति स्वत: होती है। सांख्यदर्शन को ईश्वरवादी दर्शन के रूप में मानने की सर्वप्रमुख भूमिका आचार्य विज्ञानभिक्षु की है। इन्होंने सांख्यप्रवचनभाष्य में सांख्यशास्त्र के प्रणेता कपिलमुनि को ईश्वर का अवतार
श्वर सम्बन्धी जैन अवधारणा :: 51
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