________________
1.2.4 जीवन के आयाम
जीवन-प्रबन्धन के लिए जीवन के विविध आयामों का सम्यक् परिज्ञान होना भी आवश्यक है, जो इस प्रकार हैं - 1) संसार में सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है और इसीलिए सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता।
सव्वे पाणा पिआउआ, जीविउ कामा, सव्वेसिं जीवियं पियं 2) जीवन और जगत् प्रतिसमय परिवर्तनशील हैं और बदलते हुए जीवन में प्रतिपल नई-नई अवस्थाएँ आती रहती हैं एवं पुरानी बीतती जाती हैं।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् 3) जीवन का जो समय बीत जाता है, वह पुनः लौटकर नहीं आता, अतः वर्तमान समय का सम्यक् प्रबन्धन करके ही जीवन को सफल बनाया जा सकता है।
जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिणियत्तइ।
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जंति राइयो।। 4) जीवन के मुख्यतया पाँच पड़ाव हैं – जन्म, बाल्यावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था तथा मृत्यु।40
इन सभी अवस्थाओं में जीवन का सम्यक् प्रबन्धन करना आवश्यक है, क्योंकि जीवन निरन्तर मृत्यु की ओर बढ़ता जाता है।
उवणिज्जइ जीवियमप्पमायं 5) जीवन क्षणभंगुर है और मृत्यु अवश्यंभावी है। कई प्राणी जन्म लेते ही, कई बाल्यावस्था में और
कई युवावस्था में काल के गाल में समा जाते हैं तथा बुढ़ापा तो मृत्यु का द्वार या द्वारपाल ही है। अतः कल का भरोसा किए बिना वर्तमान जीवन का सम्यक् प्रबन्धन कर लेना चाहिए, अन्यथा यह मेरे पास है और यह मेरे पास नहीं है, यह मुझे करना है और यह नहीं करना है - ऐसा विचार करते-करते ही कालरूपी चोर प्राणों का हरण कर लेता है।
इमं च मे अस्थि इमं च नत्थि, इमं च मे किच्च इमं अकिच्चं ।
तं एवमेवं लालप्पमाणं, हरा हरंति त्ति कहं पमाए।। 6) जीवन में चार ‘स' अल्प या अधिक मात्रा में सभी को प्राप्त होते हैं - समय, समझ, सामर्थ्य
एवं सामग्री। फिर भी, जीवन का सम्यक् प्रबन्धन न होने से जीवन यूँ ही बीत जाता है। बचपन में समझ, जवानी में समय , बुढ़ापे में सामर्थ्य एवं मृत्यु के समय सामग्री का अभाव होना, इसका प्रमुख कारण है। अतः उचित वय में उचित कार्य कर लेना चाहिए, यही जीवन-प्रबन्धन है।
10
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org